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69.28. 10]
महाकइ-पुप्फयंस बिरइयज महापुराण तं विसुणिवि जाइवि विविणपहि पच्छपणे थाइवि रुवखरहि । कर मउलिवि जोइणि का वि थुय पवइण उरब्भहु कण्ण लुय । घत्ता-इयरें पइसवि दुग्गे चितिउं चंददिवायर ॥
इह णियंति पसु पक्खि किणर जक्ख णिसायर' ||271
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जहिं गच्छमि तहिं तहि अस्थि परु जइ णरु णउ तो पेक्खइ अमरु । किह कण्ण' उरम्भहु कत्तरमि घरु गंपिणु तामहु वज्जरमि । गय बेण्णि वि पेसणु अप्पियउ णारयकिउ चारु वियप्पियउ । विप्पेण वृत्त हलि हंसगइ अवलोयहि तुहु णंदणहु मइ। जाह गम्मइ लोह असुष्णु णिलउ पसुसवणहं किह विरइउ विलउ। सुरगुरु वि समाणु ण णारयहु लइ एहु वि जोग्गउ गुरुवयहु । सुय परिणि वि तासु समप्पियई वसुराएं सहुं नंपिवि पियई। तवचरणु जिणागमि संचरिवि दिउ मुउ थिउ दिव्यबोंदि धरिवि । बहकाले बिहि विहेउभरिउ पारद्ध विवाउ पवित्थरउ। णारउ अय' जव तिबरिस चवइ तं पव्वउ बयणु अइक्कमइ ।
10 निश्चित कर वहां इसके दोनों कान काट कर ले आओ। यह सुनकर एकान्त पथ में जाकर पेड़ों में छिपकर हाथ जोड़कर उसमें किसी योगिनी की सुधि की और मेढ़े के कान काट लिये।
घत्ता--दूसरे ने दुर्गम स्थान में प्रवेश कर मन में विचार किया कि यहाँ भी सूर्य और चन्द्रमा देखते हैं, और पशु, पक्षी, किन्नर, यक्ष, निशाचर भी।
(28) मैं जहाँ जाता हूँ वहाँ-वहाँ दुसरा आदमी है। यदि आदमी नहीं देखता है तो देवता देखता है, मैं मेढ़े के कान कहाँ का ? मैं घर जाकर आचार्य से कहूँगा। वे दोनों गये और अपनी-अपनी सेवा का निवेदन किया। नारद का कहा हुआ सुन्दर माना गया । ब्राह्मण ने ब्राह्मणी से कहा : हे हंस की चाल वाली, अपने बेटे की अक्ल देखो किसी भी स्थान को जाया जाए, वह सूना नहीं है, फिर इसने मेढ़े के कान को किस प्रकार काटा। नारद के समान बृहस्पति भी नहीं है, अतः यही गुरुपद के योग्य है। उन्होंने अपना पुत्र और गृहिणी भी नारद के लिए सौप दी और राजा वसु के साथ प्रिय बातचीत कर जन-शास्त्रों के अनुसार तप का आचरण कर वह ब्राह्मण देव शरीर धारण कर (स्वर्ग में) स्थित हो गया। बहुत समय के बाद उन दोनों ने युक्तिपूर्वक विवाद किया जो बहुत बढ़ गया। नारद कहता है कि तीन साल के जौ को अज कहते हैं, लेकिन पर्वतक इस
4. AP जाय विणिसृणिवि । 5. AP थियणबहि । 6. AP आइवि । 7. A किंवापर। (28) I.AP कण्णु। 2. A गुरुयरह । 3.AP सुउ। 4. AP बहुकालाहिं। 5.AP पवित्थरिउ ।
6. A अइजव।