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महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
[68. 10.9 महि हिंडिवि खंडिवि वइरिमाणु आवेप्पिणु तं पुणु णिययठाणु। कत्तिइ गंदीसरि सरकयंतु अहिसिंचिवि अंचिवि अरुहु संतु। 10
उववासिउ छणवासरि पसरणु जावच्छइ णिसि परवइ णिसणु । पत्ता-इंदणीलणीलंगएण चंदबिबु ता गिलिउ विडप्पें ।। णहभायणयसि संणिहिउ घोट्टिउ बुद्ध व कसणे सप्पें ।। 10 ।।
। णं किउ अलिजू हेण कमलु णं पावे सुक्किउ छइउ विमलु। संणिह्यि विहाएण व विवित्ति मयणाहि धोयकलहोयवत्ति'। चितइ पहु बिहु गहगत्यु जेम काले कउलेवउ हउ मि तेम। लाइ जामि हणमि दुबकम्मजोणि "महसेणह ढोइवि सयलखोणि । गउ पुहइणाहु वेग्गार सिरिमंतसलि सिरिणायमूरि। पणवेप्पिणु लइयउ तवोविहाणु तसथावरजीवह अभयदाणु। से दिण्णउं जीवदयालुएण गिरिसिद्रि सुइरु लंबियभुएण ।
सेवा कराई; अनेक गणबद्ध देवों को वश में किया। धरती पर परिभ्रमण कर बैरियों के मान का खंडन कर, कार्तिक मास को (अष्टाह्निका में) नंदीश्वर पर्व में कामदेव के शत्रु सन्त अर्हत् का अभिषेक और पूजा कर पूर्णिमा के दिन उपवास कर, राजा जब रात्रि में बैठा हुआ था
पत्ता–इन्द्रनील के समान नीले शरीर वाले राहु ने चन्द्र बिम्ब को ऐसे निगल लिया, जैसे आकाश रूपी पात्र के तल में रखे हुए दूध को काले साँप ने पी लिया हरे | 100
मानो भ्रमर समूह ने कमल को ढक लिया हो, भानो पाप ने विमल पुण्य को आच्छादित कर लिया हो, मानो विधाता ने गोल-गोल धुले हुए चाँदी के पात्र में कस्तूरी को रख लिया हो। राजा सोचता है जिस प्रकार चन्द्रमा राहु से ग्रस्त है, उसी प्रकार मैं भी काल से कवलित होऊँगा। लो मैं जाता हूँ और दुष्कर्मों की परंपरा का अन्त करता हूँ। महिसेन को समस्त भूमि देकर, वैराग्य से प्रचुर राजा चला गया। उसने सीमंत पर्वत पर श्रीनाग मुनि को प्रणाम कर तपविधान अंगीकार कर लिया। उसने बसस्थावर जीवों को अभयदान दिया। जीवों के प्रति दयाल वह गिरि के शिखर पर बहुत समय तक, हाथ लम्बे कर सूर्य किरणों का भयंकर ताप सह
(11) LAकलहोयपत्ति । 2.Aइह। 3. AP महिसेकह।