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जैन कथा कोष १५ चुप हो गये। उसकी यह हठ सम्पूर्ण नगरी में विख्यात हो गई, इसलिए कोई उसके साथ विवाह करने को राजी नहीं हुआ। परिणामस्वरूप काफी समय तक वह कुंवारी ही रही, लेकिन फिर भी उसने अपनी हठ नहीं छोड़ी।
उसकी इस हठ की चर्चा नगर-नरेश जितशत्रु के कानों तक पहुंच गई। उन्होंने यह बात अपने सुबुद्धि नाम के मन्त्री से कही। विचित्रता उत्सुकता की जननी होती ही है। मन्त्री सुबुद्धि अतूंकारी के साथ विवाह करने को उत्सुक हो गया। शुभ मुहूर्त में दोनों का विवाह हो गया। __एक दिन अतूंकारी ने अपने पति से कहा—'आप राज्यसभा विसर्जित होते ही सीधे घर आ जाया करें। आपका देर से आना मुझे सहन नहीं होता।'
मन्त्री अब जल्दी ही घर आने लगा। एक दिन राजा से विचार-विमर्श में काफी देर हो गई, यहाँ तक कि आधी रात हो गई। आधी रात के बाद ही मन्त्री अपने घर पहुँचा | आज्ञा की अवहेलना से अतूंकारी तो भरी बैठी ही थी। उसने पति के लिए दरवाजा खोला और स्वयं बाहर निकल गई। पति ने उसे मनाने का बहुत प्रयास किया, लेकिन उसने उसकी एक न सुनी।
वह क्रोध से भरी हुई जंगल में चली जा रही थी कि उसे चोरों का गिरोह मिल गया। चोरों ने उसे पकड़कर पल्लीपति के सुपुर्द कर दिया। पल्लीपति ने उसे अपनी पत्नी बनाना चाहा, लेकिन वह पतिव्रता थी। उसने स्पष्ट शब्दों में इन्कार कर दिया। पल्लीपति ने पहले उसे प्यार से समझाया और फिर भयंकर त्रास दिये, पर अतूंकारी टस से मस न हुई। निराश होकर पल्लीपति ने उसे एक रक्त व्यापारी के हाथ बेच दिया। रक्त व्यापारी उसका रक्त निकालकर बेचने लगा। इससे भट्टा पंजर मात्र रह गयी। . इस भयंकर वेदना से अतूंकारी का हृदय परिवर्तन हो गया। वह समझ गई . कि क्रोध ही मनुष्य का सबसे प्रबल शत्रु है। उसने क्रोध का त्याग करके क्षमा धारण कर ली। अब वह क्षमा की मूर्ति बन गई। __एक बार उसका भाई उस नगरी में पहुँच गया, जहाँ वह रक्त व्यापारी अतूंकारी का रक्त निकालकर बेचा करता था। भाई ने बहिन को पहचान लिया
और बहन ने भाई को। भाई उसे अपने साथ ले आया। अब अतूंकारी अपने पति की अनुगामिनी बनकर रहती और बिल्कुल भी क्रोध नहीं करती थी।
उसकी क्षमाशीलता की प्रशंसा देवराज इन्द्र ने अपनी सभा में की तो एक देव मुनि का वेश रखकर उसकी परीक्षा लेने आया। उसने लक्षपाक तेल माँगा।