Book Title: Jain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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जैन गृहस्थ के प्रकार एवं उसकी धर्माराधना विधि ... 5
जैन धर्म में साधना के स्तर
जैन परम्परा में मानव की साधना का प्रारम्भ सम्यग्दर्शन से होता है और पूर्णता सम्यक् चारित्र में होती है । सम्यक्चारित्र के दो पक्ष माने गए हैं- 1. गृहस्थ धर्म और 2. श्रमण धर्म । सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की दृष्टि से गृहस्थ एवं मुनि की साधना में कोई विशेष अन्तर नहीं है । आत्मा के शुद्ध स्वरूप का बोध होना, देव गुरू - धर्म पर श्रद्धा करना, जिनवाणी के प्रति निःशंक रहना आदि नियम दोनों प्रकार के साधकों के लिए अनिवार्य है, किन्तु सम्यक्चारित्र के परिपालन की अपेक्षा से गृहस्थ एवं साधु की साधना में अन्तर है। गृहस्थ अपनी वैयक्तिक क्षमता के आधार पर हिंसादि पाप कार्यों का अंशत: त्याग करता है जबकि मुनि हिंसादि दुष्प्रवृत्तियों का सर्वथा त्यागी होता है । यही इन दोनों की साधना में विशेष अन्तर है।
यह हकीकत है कि संसार में सभी व्यक्तियों की क्षमता एक समान नहीं होती है। जैसे विद्यालय में दाखिल होने वाले समस्त विद्यार्थी एक ही कक्षा के नहीं होते हैं, अपनी-अपनी योग्यतानुसार सभी की कक्षाएँ अलग-अलग होती है, वैसे ही आध्यात्मिक क्षेत्र में भी सभी साधकों की योग्यता एक समान नहीं होती। उसी अपेक्षा से साधनाशील साधकों के दो प्रकार किए गए हैं।
जैन आगमों में मुख्यतः धर्म के दो प्रकार बताए हैं - एक श्रुतधर्म और दूसरा चारित्रधर्म । श्रुतधर्म का अर्थ है- सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान को समझपूर्वक स्वीकार करना अर्थात नवतत्त्व आदि के स्वरूप को जानना और उन पर निश्चल श्रद्धा रखना श्रुतधर्म है। चारित्रधर्म का अर्थ है-सम्यक्चारित्र का पालन करना। इससे ज्ञात होता है कि जैन परम्परा में धर्म साधना के जो दो प्रकार कहे गए हैं, वे गृहस्थ एवं साधु की अपेक्षा से पूर्णतः युक्तिसंगत हैं। ये दोनों भेद व्यक्ति की मनोभूमिका एवं क्षमता के आधार पर किए गए हैं। यह बात हम अनुभव के आधार पर भी कह सकते हैं कि गृहस्थ श्रुतधर्म का आचरण पूर्ण रूप से भी कर सकता है, किन्तु चारित्रधर्म का सर्वांश पालन उसके लिए संभव नहीं है क्योंकि गृहस्थ साधक हिंसा, झूठ, अब्रह्मसेवन, परिग्रह आदि पाप कार्यों के बीच रहते हुए इनसे सर्वथा मुक्त रह ही नहीं सकता है।