Book Title: Jain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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152... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक .... व्यक्तित्व के रूप में जाना जाता है।
हानियाँ- स्वपत्नीसंतोषव्रत का पालन न करने से तथा परस्त्री, विधवा सेवन, हस्तमैथुन आदि का त्याग न करने से वीर्य शक्ति की अत्यन्त हानि होती है। पापकर्मों का प्रगाढ़ बन्धन, कुल का नाश, पृथ्वीकाय आदि षट्कायिक जीवों की हिंसा एवं नरकगति प्राप्त होती है। परलोक में नपुंसकत्व, विरूपत्व, प्रियवियोग आदि दोष प्राप्त होते हैं।
जैनाचार्यों ने कहा है- परस्त्रीगमन और अमर्यादित काम सेवन दुर्गतिदायक, अधर्म का मूल और संसारवृद्धि का कारण है अत: सज्जन पुरूषों को विषाक्त अन्नवत् इसका त्याग करना चाहिए।42 5. परिग्रह परिमाणव्रत
यह श्रावक का पांचवाँ अणुव्रत है। इसका दूसरा नाम इच्छा-परिमाणव्रत भी है।43 इसका शाब्दिक अर्थ है-परिग्रह की मर्यादा करने से पूर्व इच्छाओं पर नियन्त्रण करना। इच्छाओं का निरोध किए बिना परिग्रह से विरत होना असंभव है, इसलिए इच्छा परिमाण ही परिग्रह परिमाण है।
श्रमण के लिए तो सम्पूर्ण परिग्रह के परित्याग का विधान है, किन्तु गृहस्थ के लिए सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग करना संभव नहीं है अत: गृहस्थ को परिग्रह के ममत्व से बचने का प्रयास करना चाहिए, यही परिग्रह-परिमाणवत है। यह व्रत दो करण और तीन योग से स्व-इच्छा के अनुसार ग्रहण किया जाता है। इस व्रतग्रहण की प्रतिज्ञा करता हुआ व्यक्ति यथेच्छा विकल्पपूर्वक नौ प्रकार के परिग्रह की मर्यादा रखता है। यहाँ इच्छा का सम्बन्ध बाह्य-परिग्रह से है, किन्तु उसकी सीमा करना भी अत्यावश्यक है।
परिग्रह के प्रकार- जैन ग्रन्थों में निम्न नौ प्रकार के परिग्रह माने गए हैं 44___1. क्षेत्र- खुला हुआ भूमिभाग जैसे खेत, खलिहान, बाग, पहाड़, खान, जंगल, आदि।
2. वास्तु- ढका हुआ भूमि भाग जैसे-मकान, दुकान, गोदाम, बंगला, कारखाने आदि।
3. हिरण्य- चाँदी अथवा चाँदी के आभूषण आदि। 4. सुवर्ण- स्वर्ण, अथवा स्वर्ण के आभूषण और उपकरण आदि।