Book Title: Jain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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पौषव्रत विधि का सामयिक अध्ययन ....
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यह ज्ञातव्य है कि परवर्तीकालीन संकलित एवं संगृहीत कृतियों में यह विधि विस्तार के साथ उल्लिखित हैं, किन्तु वे संकलित कृतियाँ उक्त ग्रन्थों को आधार बनाकर ही रची गई हैं। केवल उन कृतियों में अपनी-अपनी सामाचारी के अनुसार किन्हीं में विधि को लेकर, तो किन्हीं में सूत्रपाठ को लेकर, कुछ में क्रम सम्बन्धी, तो कुछ में आलापक - सम्बन्धी विभिन्नताएँ देखी जा सकती हैं। इस आधार पर निश्चित होता है कि पौषधविधि मुख्य रूप से विधिमार्गप्रपा आदि ग्रन्थों में कही गई है।
यदि इन मूल ग्रन्थों का तुलना की अपेक्षा अध्ययन किया जाए, तो कुछ भिन्नताएँ इस प्रकार ज्ञात होती हैं
प्रतिवचन की अपेक्षा- पौषधविधिप्रकरण, सामाचारीप्रकरण आदि ग्रन्थों में पौषधग्रहण विधि प्राय: समतुल्य है, किन्तु तिलकाचार्य - सामाचारी में एक बात विशेष रूप से यह कही गई है कि यदि पौषधव्रत गुरू की सान्निध्यता में ग्रहण किया जाता है तो शिष्य द्वारा प्रतिलेखन, प्रतिक्रमण, प्रमार्जन आदि हेतु अनुमति लेने पर गुरू- करेह, संदिसावेह, भणेह, आदि अनुज्ञावचन कहे जाते हैं। तदनन्तर व्रतग्राही श्रावक को 'इच्छं' शब्द बोलना चाहिए | 72
इस सामाचारी ग्रन्थ में निर्दिष्ट 'इच्छं' शब्द से ऐसा अनुमान होता है कि जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में बहुत से विधि-विधान सम्पन्न करते समय ‘इच्छं' शब्द का प्रयोग किया जाता है। वह इसी सामाचारी ग्रन्थ से प्रचलन में आया है, क्योंकि अन्य किसी ग्रन्थ में 'इच्छं' का प्रयोग कब, क्यों किया जाना चाहिए - यह निर्देश प्राप्त नहीं है।
प्रतिलेखन की अपेक्षा- सामाचारी नियमानुसार पौषध संबंधी प्रतिज्ञासूत्र उच्चारित करने के बाद, पौषधव्रती द्वारा वस्त्र, शरीर आदि की प्रतिलेखना की जाती है। यह विधि तिलकाचार्य सामाचारी को छोड़कर शेष सभी ग्रन्थों में समान है। इसमें ‘पडिलेहण' एवं 'अंग पडिलेहण' नाम का कोई आलापक-पाठ नहीं है, केवल 'मुहपत्ति पडिलेहुँ' बोलकर मुखवस्त्रिका प्रतिलेखन करने का निर्देश है।73 उसके बाद ‘उपधिपडिलेहण' के दो आदेश लेकर पहनने, ओढ़ने एवं बिछाने सम्बन्धी वस्त्र की प्रतिलेखना करने का वर्णन है। जबकि