Book Title: Jain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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356... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक .... आचरण करनेवाला हो, उसके सान्निध्य में ही योग(उपधान) तप क्यों करना चाहिए? इसके उत्तर में कहा गया है कि जिसने योग (उपधान) विधि का वहन किया है, वह साधु ही कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप, है और मोक्षफल को प्रदान करने वाला है। भले ही कोई साधु बाह्य-क्रियाकाण्ड का कठोरता से पालन करता हो, परन्तु अनुज्ञा-अनुयोग आदि योग उपधान की क्रिया किया हुआ नहीं हो, वह बाह्य से साधुवेश में होने पर भी तत्त्वत: असाधू ही है। इस विषय में शास्त्रकारों ने यह भी निर्दिष्ट किया है कि जिस श्रावक ने उपधानतप नहीं किया है और जिस साधु ने योगवहन नहीं किया है, उसके द्वारा स्वयं ही सूत्रों का विवेचन करना, वाचना देना या दिलवाना अधर्म के समान है। इससे सिद्ध होता है कि साधु हो या श्रावक, वह अधिकार प्राप्त सूत्रों का ही स्वाध्याय आदि कर सकता है।
पंचवस्तुक आदि ग्रन्थों में बताया गया है कि जो योगविधि या उपधानविधि का उल्लंघन करते हैं उन्हें 1. आज्ञाभंग 2. अनवस्था 3. मिथ्यात्व और 4. विराधना-ये चार दोष लगते हैं।64 जीतकल्प आगम में कहा गया है कि जो साधक आयंबिल आदि तपपूर्वक योग अथवा उपधान को वहन नहीं करता है, उसके व्रत-महाव्रत में अतिचार लगते हैं।5 ..
प्रश्नव्याकरणसूत्र में निर्दिष्ट है कि जो साधु योगवहन किए बिना श्रुत का अभ्यास करता है, उसे तीर्थंकर अदत्त का दोष लगता है। तत्त्वत: उपधान-वहन की आवश्यकता कितनी है? उस सम्बन्ध में हीर प्रश्न का उल्लेख अवश्यमेव पढ़ने जैसा है। उसमें निर्देश है कि कदाचित् गुरू का योग न मिले, तो दक्ष श्रावक को स्थापनाचार्य के समीप उपधान-विषयक सम्पूर्ण विधि करना चाहिए, परन्तु उपधान करने में आलस्य नहीं करना चाहिए। उपधान-तपविधि में हुए क्रमिक परिवर्तन
इस अध्याय के सन्दर्भ में यह चर्चा करना आवश्यक है कि प्राचीन काल में उपधान की तप-प्रणाली क्या थी और वर्तमान काल में उसमें कैसे और क्यों परिवर्तन आए ?
महानिशीथसूत्र का जब गहन अध्ययन करते हैं, तो यह सूचित होता है कि उस समय पंचमंगल महाश्रुतस्कन्ध आदि कुछ उपधानों के अंत में अट्ठम