Book Title: Jain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 491
________________ उपासकप्रतिमाराधना विधि का शास्त्रीय विश्लेषण ...425 श्रावक द्वारा शंका आदि शल्य से रहित होकर सम्यग्दर्शन का पूर्णत: पालन करना दर्शनप्रतिमा है। ___ दशाश्रुतस्कन्ध के अनुसार दर्शनप्रतिमाधारी गृहस्थ धर्म रूचिवाला होता है, परन्तु शीलव्रत, गुणव्रत, प्राणातिपात आदि-विरमणव्रत और प्रत्याख्यान आदि को सम्यक् प्रकार से धारण नहीं करता है। इस प्रतिमा में वह केवल श्रद्धा रखता है।15 ___ यहाँ यह ध्यातव्य है कि इस प्रतिमा की आराधना अविरत सम्यगदृष्टि भी कर सकता है। दूसरे, जो सामान्य रूप से सम्यग्दर्शनी है और जो प्रतिमाधारी सम्यग्दर्शनी है, इन दोनों में अन्तर है। सामान्य सम्यक्त्वी राजाभियोग आदि कुछ अपवादों को छोड़कर सम्यक्त्व व्रत स्वीकार करता है, जबकि दर्शन प्रतिमाधारी बिना किसी छूट(अपवाद) के यह नियम स्वीकार करता है। वह केवल निर्ग्रन्थ प्रवचन को ही यथार्थ मानता है। दिगम्बर-परम्परा में मान्य उपासकाध्ययन, वसुनन्दि श्रावकाचार17, प्रश्नोत्तरश्रावकाचार,18 आदि के अनुसार जो आठ मूलगुणों का पालन करता है, सप्तव्यसनों का त्यागी है, वह दार्शनिक श्रावक है। सारांश है कि इस प्रतिमा में व्यक्ति आगम-वचनों पर दृढ़ श्रद्धा रखता है और सम्यग्दर्शन को विशुद्ध रूप से धारण करता है। 2. व्रत प्रतिमा- व्रत का अर्थ है-विरति। दशाश्रुतस्कन्ध में कहा गया है कि श्रावक द्वारा शीलव्रत, गुणव्रत, प्रत्याख्यान और पौषध का सम्यक परिपालन करना किन्तु सामायिक और देशावगासिकव्रत का सम्यक् प्रतिपालन नहीं करना व्रत-प्रतिमा है।19 व्रत प्रतिमा ग्रहण करने वाला श्रावक पाँच अणुव्रतों का निरतिचार पालन करता है, उनमें किसी भी प्रकार का दोष नहीं लगने देता है। वह तीनों शल्यों से मुक्त रहता हुआ शीलव्रत, गुणव्रत, प्रत्याख्यान आदि का भी अभ्यास करता है। बारह व्रतों में आठवें व्रत तक तो वह नियमित रूप से पालन करता है, परन्तु सामायिक, देशावगासिक आदि व्रतों की आराधना परिस्थिति के कारण यदि नियमित रूप से नहीं भी कर सके, तो भी यथासंभव शिक्षाव्रतों का पालन अवश्य ही करता है। इससे सिद्ध है कि सामान्य श्रावक अणुव्रत और गुणव्रत को धारण करता भी है और नहीं भी करता है, जबकि व्रत-प्रतिमा में अणुव्रत और गुणव्रत

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