Book Title: Jain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 493
________________ उपासकप्रतिमाराधना विधि का शास्त्रीय विश्लेषण... 427 अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्वतिथियों पर प्रतिपूर्ण पौषधव्रत की आराधना करना पौषधप्रतिमा है।22 उपासकदशांगसूत्र टीका में भी यही उल्लेख है कि उक्त तीनों प्रतिमाओं के पालन के साथ अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा, आदि पर्वतिथियों में प्रतिपूर्ण पौषध करना पौषध - प्रतिमा है। 23 यदि हम व्रत की दृष्टि से देखें, तो पौषध ग्यारहवाँ व्रत है और प्रतिमा की दृष्टि से समझें, तो वह चौथी प्रतिमा है। सामान्य में देशतः पौषध भी कर सकते हैं, परन्तु प्रतिमा में प्रतिपूर्ण पौषध करने का विधान है। सामान्य पौषधव्रत में कोई भी दोष लग सकता है, परन्तु प्रतिमाधारी के द्वारा गृहीत पौषध में दोष की सम्भावनाएँ नहीं होती है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार पौषधव्रत में सोलह, बारह या आठ प्रहर तक उपवास करने का कोई प्रतिबन्ध नहीं है । उस समय वह आचाम्ल, निर्विकृति आदि के द्वारा भी पौषध की साधना कर सकता है। 24 उसमें कुछ अपवाद भी होते हैं, किन्तु प्रतिमा में किसी भी प्रकार के अपवाद को स्थान नहीं दिया गया है। प्रतिमा निरतिचार होती है। यदि शरीर स्वस्थ है, तो प्रतिमाधारी श्रावक सोलह प्रहर का पौषधोपवास करता है। यदि शरीर अस्वस्थ हो, तो बारह या आठ प्रहर का भी पौषध किया जा सकता है। पौषधोपवास के दिन प्रतिमाधारी गृहस्थ श्रमण के समान आरम्भ आदि का परित्याग कर धर्मध्यान करता है। इस प्रकार पौषधप्रतिमा धारण करने वाला श्रावक पर्व- दिनों में उपवास एवं पौषधव्रत की आराधना करके अपना आध्यात्मिक विकास उत्तरोत्तर आगे बढ़ाता है। यह साधना एकान्त स्थान, चैत्यालय या उपाश्रय में की जाती है। 5. नियम प्रतिमा नियम का अर्थ प्रतिज्ञा धारण करना है। श्वेताम्बर मतानुसार विविध नियमों को धारण करना नियम प्रतिमा है । दशाश्रुत- स्कन्ध में यह बतलाया गया है कि यह प्रतिमा ग्रहण करने वाला साधक प्रमुख रूप से पाँच नियम स्वीकार करता है - 1. स्नान नहीं करना 2. रात्रि में चतुर्विध - आहार का त्याग करना 3. धोती को लांग नहीं देना, अर्थात धोती के दोनों अंचलों को कटिभाग से बांध लेना, किन्तु नीचे से नहीं बांधना 4. दिन में ब्रह्मचर्य का पालन करना और 5. रात्रि में अब्रह्मचर्य का परिमाण करना। 25 भोज्य पदार्थ के सचित्त और अचित्त- ये दो प्रकार हैं। मुनि-जीवन धारण करने वाला साधक सचित्त फल आदि पदार्थों का यावज्जीवन के लिए त्याग

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