Book Title: Jain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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उपासकप्रतिमाराधना विधि का शास्त्रीय विश्लेषण ...429 प्रतिमा है। इस भूमिका में रहने वाला साधक वैयक्तिक-दृष्टि से तो अपनी तृष्णाओं एवं आवश्यकताओं का परिसीमन कर लेता है, फिर भी पारिवारिक एवं सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्वहन करने की दृष्टि से गार्हस्थ्य कार्य और व्यवसाय आदि करता रहता है, जिसके परिमाणस्वरूप उद्योगी एवं आरंभी हिंसा से पूर्णतया बच नहीं पाता है।30 इस प्रतिमा का पालन कम से कम एक, दो दिन तथा उत्कृष्ट सात महीनों तक किया जाता है। ____ दिगम्बर परम्परा में सातवीं 'ब्रह्मचर्य' प्रतिमा है। यह विवेचन छठवीं प्रतिमा में कर चुके हैं।
8. आरम्भत्याग प्रतिमा- आरम्भत्याग का सीधा अर्थ है-हिंसाजन्य या पापजन्य कार्य-व्यापार का त्याग करना। इस परिभाषा के अनुसार पारिवारिक एवं सामाजिक उत्तरदायित्वों का कार्यभार पुत्र आदि को सुपुर्द करना एवं स्वयं के लिए हिंसात्मक-क्रियाओं या कृषि, वाणिज्य आदि क्रियाओं का त्याग करना आरम्भत्याग-प्रतिमा है।
इस प्रतिमा में मानसिक, वाचिक और कायिक-तीनों आरम्भ का त्याग किया जाता है।31 ____ यहाँ यह जानने योग्य है कि इस प्रतिमा को स्वीकार करने वाला श्रावक स्वयं तो व्यवसाय आदि कार्यों में भाग नहीं लेता है और न ही ऐसा कोई कार्य आरम्भ करता है, किन्तु अपने पारिवारिक एवं व्यावसायिक कार्यों में यथोचित मार्गदर्शन अवश्य देता है। दूसरे, वह व्यवसाय आदि कार्यों से तो मुक्त हो जाता है, लेकिन सम्पत्ति के प्रति स्वामित्व के अधिकार का त्याग नहीं करता है। आचार्य सकलकीर्ति ने आठवीं प्रतिमाधारी को रथ आदि की सवारी के त्याग का भी विधान किया है।32 इस प्रतिमा के विषय में दोनों परम्पराएँ समान हैं।
9. प्रेष्यपरित्याग प्रतिमा- प्रेष्यपरित्याग का अर्थ है-परिवार या व्यवसाय सम्बन्धी लेन-देन का सम्पूर्ण त्याग करना। इस प्रतिमा को ग्रहण करने वाला उपासक जब यह देख लेता है कि उसके उत्तराधिकारियों द्वारा उसकी सम्पत्ति का सही रूप से उपयोग हो रहा है, तब वह अपनी सम्पत्ति से अपने अधिकार का भी परित्याग कर देता है। इस प्रकार विरति की दिशा में एक कदम आगे बढ़कर परिग्रह से विरत हो जाता है। इसका दूसरा नाम परिग्रह-परित्याग भी है।
इस कोटि में स्थित रहने वाला श्रावक परिग्रह-त्यागी होने पर भी पुत्र