Book Title: Jain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

View full book text
Previous | Next

Page 504
________________ 438... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक अपवादसहित होते हैं, जबकि प्रतिमाओं में कोई अपवाद नहीं होता। प्रतिमा में दर्शन और व्रत संबंधी गुणों का निरपवाद परिपालन और उत्तरोत्तर विकास किया जाता है। 60 प्रतिमाओं का काल विचार जैन विचारणा में उत्कृष्ट साधना मार्ग पर आरूढ़ होने एवं विशिष्ट प्रतिज्ञाओं द्वारा साधना पथ को प्रशस्त करने हेतु गृहस्थ के लिए ग्यारह प्रतिमाओं का प्रावधान है। वस्तुत: बारहव्रती श्रावक के मन में जब साधना की तीव्र भावना उत्पन्न होती है, तब वह इन प्रतिमाओं को स्वीकार करता है । समवायांग, उपासकदशा, दशाश्रुतस्कन्ध आदि जैनागमों में ग्यारह प्रतिमाओं का स्पष्ट उल्लेख है । उपासकदशा में श्रमणोपासक आनन्द द्वारा प्रतिमाएं धारण किए जाने का सुस्पष्टतः उल्लेख है। विंशतिविंशिका, पंचाशक प्रकरण आदि आगमेतर ग्रन्थों में भी श्रावक - प्रतिमाओं का सम्यक् विवेचन उपलब्ध है, किन्तु ये प्रतिमाएँ कितने समय के लिए ग्रहण की जानी चाहिए? इस सम्बन्ध में दशाश्रुतस्कन्ध, उपासकटीका एवं पंचाशक प्रकरण मुख्य रूप से उल्लेखनीय और पठनीय हैं। इनमें भी यह ज्ञातव्य है कि दशाश्रुतस्कन्ध में प्रारम्भ की चार प्रतिमाओं को छोड़कर शेष पाँचवीं से ग्यारहवीं तक की सात प्रतिमाओं का ही कालमान बताया गया है। 61 पंचाशकप्रकरण में भी प्रत्येक प्रतिमा का पृथक्-पृथक् कालमान न बतलाकर केवल ग्यारहवीं प्रतिमा का जघन्यकाल एक, दो, तीन अहोरात्र बतलाया है। इससे पूर्व की दस प्रतिमाओं का कालमान स्वतः निश्चित हो जाता है।62 यद्यपि उपासकदशा की टीका में ग्यारह ही प्रतिमाओं का पृथक्पृथक् काल (समय) सूचित किया गया है। इसमें पहली प्रतिमा का उत्कृष्टकाल एक मास, दूसरी का उत्कृष्टकाल दो मास, तीसरी का उत्कृष्टकाल तीन मास और चौथी का उत्कृष्टकाल चार मास निर्दिष्ट किया गया है। शेष पाँचवी से लेकर ग्यारहवीं प्रतिमा तक जघन्यकाल एक-दो-तीन दिन और उत्कृष्टकाल क्रमश: पाँच मास से लेकर ग्यारह मास कहा गया है। 63 इस वर्णन का सारतत्त्व यह है कि प्रारम्भ की चार प्रतिमाएँ सुगम होने से क्रमशः एक, दो, तीन, चार मास तक उनका पालन करना चाहिए। इन प्रतिमाओं का जघन्योत्कृष्ट काल एक ही है, परन्तु अग्रिम पाँच से ग्यारह

Loading...

Page Navigation
1 ... 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540