Book Title: Jain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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उपासकप्रतिमाराधना विधि का शास्त्रीय विश्लेषण... 433
किया है। वे उक्त अर्थ के ही पोषक हैं। 46
इस प्रकार का वर्गीकरण कब हुआ ? शोध के आधार पर ज्ञात होता है कि स्वामी कार्तिकेय, आचार्य समन्तभद्र (12 वीं शती) तक नहीं हुआ था, क्योंकि तत्संबंधी ग्रन्थों में कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। उनके श्रावकाचार में भिक्षुक एवं उत्कृष्ट नाम की पुष्टि अवश्य होती है, किन्तु वर्गीकरण जैसा कोई 'ब्रह्मचारी होते हैं और जेब उनमें से अन्तिम दो को 'भिक्षक' संज्ञा दे दी गई हैं. में रहते हैं अत: उन्हें ‘गृहस्थ' संज्ञा स्वतः प्राप्त है । यद्यपि समन्तभद्र के मत से श्रावक दसवीं प्रतिमा तक अपने घर में ही रहता है, पर यहाँ 'गृहिणी गृहमाहुर्न कुड्यकटसंहितम्' की नीति के अनुसार स्त्री को ही गृहसंज्ञा प्राप्त है और उसके साथ रहने के कारण ही वह गृहस्थ संज्ञा का पात्र है। इस प्रकार प्रतिमाधारियों में प्रारम्भिक छः प्रतिमाधारक स्त्री भोगी होने से गृहस्थ हैं। दूसरे गृहस्थ की कोटि में गिने जाने वाले प्रतिमाधारी श्रावक नियम आदि पालन में अपेक्षाकृत लघु होने से उन्हें जघन्य श्रावक कहा गया है।
मध्यमवर्ती तीन प्रतिमाधारी श्रावक को मध्यम श्रावक कहा गया है, परन्तु दसवीं प्रतिमाधारी को मध्यम न मानकर उत्तम श्रावक माना गया है। इसका कारण यह है कि वह घर में रहते हुए भी कमल की भाँति निर्लेप रहता है। वह गृहस्थी के किसी भी कार्य में अनुमति तक भी प्रदान नहीं करता है ।
इस सम्बन्ध में यह एक प्रश्न अवश्य विचारणीय है कि दसवीं प्रतिमा धारण करने वाला श्रावक अपना जीवन भिक्षावृत्ति से निर्वाह नहीं करता है, तब उसे 'भिक्षुक' की संज्ञा कैसे दी जा सकती है ? संभवतः भिक्षुक के समीप होने से उसे भी उसी प्रकार भिक्षुक कहा गया हो, जैसे चरम भव के समीपवर्ती अनुत्तर विमानवासी देवों को द्विचरम कह दिया जाता है।
यहाँ ध्यातव्य है कि सातवीं से लेकर आगे के सभी प्रतिमाधारी श्रावक ब्रह्मचारी होते हैं और जब उनमें से अन्तिम दो को 'भिक्षुक' संज्ञा दे दी गई है, तब मध्यमवर्ती तीन (सातवीं, आठवीं और नवीं) प्रतिमाधारियों की 'ब्रह्मचारी' संज्ञा भी स्वतः सिद्ध है, परन्तु यहाँ एक प्रश्न यह उपस्थित होता है कि ब्रह्मचारी को वर्णी क्यों और कब से कहा जाने लगा ? जहाँ तक इसके समाधान का प्रश्न है, वहाँ इतना कह सकते हैं कि जैन - परम्परा में सोमदेव, जिनसेन एवं इनके पूर्ववर्ती किसी भी आचार्य ने 'वर्णी' शब्द का उल्लेख नहीं किया है। इन