Book Title: Jain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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उपधान तपवहन विधि का सर्वाङ्गीण अध्ययन .385
लोगस्ससूत्र बोलें।
तदनन्तर
एक खमासमणपूर्वक एवं गुरू की अनुमतिपूर्वक "पंचमंगलमहासुयक्खंधाइ उद्देश नंदिथिरीकरणत्थं करेमि काउस्सग्गं, अन्नत्थ सूत्र'' पढ़कर आठ श्वासोश्वास परिमाण एक नमस्कारमन्त्र का स्मरण करें। कायोत्सर्ग पूर्णकर पुनः प्रकट में नमस्कारमन्त्र बोलें। 141
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तपागच्छ परम्परा में 'नंदिथिरीकरणत्थं' के निमित्त एक नमस्कारमन्त्र का कायोत्सर्ग नहीं करते हैं। शेष उद्देश - विधि समान है। 142 नंदिपवेयण - विधि उद्देशविधि की क्रिया पूर्ण होने के बाद उपधानवाही एक खमासमणसूत्र द्वारा वंदनकर "इच्छा. संदि भगवन्! पवेयणा मुहपत्ति पडिलेहुँ?''- हे भगवन् ! आपकी इच्छापूर्वक नंदी प्रवेदन के निमित्त मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन करूँ ? - ऐसा निवेदन करें। फिर अनुमति प्राप्तकर मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन करें। • तत्पश्चात् द्वादशावर्त्तवन्दन करके कहें"इच्छा. संदि. भगवन् ! पवेयणं पवेएमि ? " - हे भगवन् ! आपकी आज्ञापूर्वक प्रवेदन को प्रवेदित करूं, अर्थात् जिस सूत्र को ग्रहण करने की अनुमति प्रदान की गई है, उसके निमित्त तप - प्रत्याख्यान करूं? तब गुरू कहे'पवेयह' - प्रवेदन करो। • उसके बाद शिष्य 'इच्छं' कहकर, एक खमासमण देकर बोलें- “पढमउवहाण पंचमंगलमहासुयक्खंघ दुवालसमपवेस निमित्तं तवं करेमि '' - प्रथम उपधान पंचनमस्कारमन्त्र की आराधना हेतु पाँच उपवास में प्रवेश करने के निमित्त तप करता हूँ। तब गुरू कहे - 'करेह'- तप में प्रवेश करो। तदनन्तर उपधानवाही 'इच्छं' कहकर, एक खमासमण देकर बोलें" इच्छकारि भगवन् पसायं किच्चा पच्चक्खाणं करावेह । " तब गुरू उपवास आदि तप का प्रत्याख्यान करवाएं। • उसके बाद उपधानवाही मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखन पूर्वक दो बार द्वादशावर्त्तवन्दन करके कहेंनन्दिमांहि अविधि आशातना हुई होय ते सव्वे हु मन-वचन-कायाए करी मिच्छामि दुक्कडं। • उसके बाद एक खमासमणपूर्वक गुरू को वन्दन कर गुरु चरणों का हाथ से स्पर्श करें। 143
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तपागच्छ परम्परा में नंदिपवेयणा विधि प्रायः पूर्ववत् ही सम्पन्न करते हैं, केवल आलापकपाठ भिन्न हैं। इसमें “इच्छकारि भगवन् ! तुम्हे अम्हं प्रथम