Book Title: Jain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 460
________________ 394... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक चेइआई वंदावेह | ' तब गुरू कहे- ' वंदावेमो ।' फिर उपधानवाही कहे - 'वासक्षेप करावेह ।' तब गुरू बोले- ' करावेमो' । तदनन्तर गुरू शिष्य के मस्तक पर वासचूर्ण डालकर चैत्यवन्दन करवाएं।163 तपागच्छ परम्परा में उपधाननिक्षेप विधि किंचिद् अन्तर के साथ पूर्ववत् करवाई जाती है। समाहारत: उपधाननिक्षेप विधि में गुरूवन्दन, उपधान तप में लगे हु दोषों की विशुद्धि निमित्त कायोत्सर्ग, तीर्थंकर परमात्माओं का स्मरण आदि कृत्य होते हैं तथा इस तप साधना द्वारा अनुरंजित मन निरन्तर शुभत्व की ओर बढ़ता हुआ शुद्धत्व समुपलब्ध करें, इस आशय से वासग्रहण आदि विधान किए जाते हैं। प्रतिपूर्णाविकृति पारण विधि यह विधि जिस दिन उपधानपौषध पूर्ण करते हैं अर्थात उपधान से बाहर होते हैं, उस दिन प्रात: काल गुरू के समक्ष की जाती है । उपधानकाल में अधिक विकृतियों का त्याग रहता है, अत: वह काल पूर्ण होने पर सभी विगयों को ग्रहण करने की अनुमति लेना - यही इस विधि का प्रयोजन है। इस विधि के संकेत सर्वप्रथम विधिमार्गप्रपा में मिलते हैं। खरतर परम्परा में आज भी यह विधि प्रचलित है जो इस प्रकार है 164 • उपधानपौषध पूर्ण करने वाला श्रावक प्रातः काल गुरू के समक्ष आकर ईर्यापथिकप्रतिक्रमण करें। • फिर एक खमासमण देकर कहे- 'इच्छा संदि. भगवन्! राइमुहपत्तिं पडिलेहेमि ।' गुरू कहे- 'पडिलेहेह ।' उसके बाद शिष्य 'इच्छं' कह मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन करें और गुरू को द्वादशावर्त्तवन्दन करें। फिर पुन: कहे- 'इच्छा. संदि.! राइयं आलोएमि?' तब गुरू कहे'आलोएह ।' फिर शिष्य 'इच्छं' कहकर 'जो मे राइओ'. . से इच्छामिठामि सूत्र एवं सव्वस्सविराइय सूत्र बोलकर मिथ्यादुष्कृत दें। पुनः दो बार द्वादशावर्त्तवन्दन करें। • उसके बाद दो खमासमणपूर्वक 'सुहराईसूत्र' तथा एक खमासमणपूर्वक 'अब्भुट्ठिओमिसूत्र' कहकर गुरू से क्षमायाचना करें। तदनन्तर उपधानवाही एक खमासमणसूत्र पूर्वक वन्दन कर मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन करें। फिर दो बार द्वादशावर्त्तवन्दन कर बोलें- 'पवेयणं पवेयहं' । पुनः उपधानवाही कहें- 'पडिपुन्न विगइ पारणउं करेहं ।' तब गुरू कहे - 'करेह । '

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