Book Title: Jain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 488
________________ 422... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक श्वेताम्बर-परम्परा में ग्यारहवीं 'श्रमणभूत' प्रतिमा है । सुस्पष्ट है कि उक्त दोनों परम्पराओं में प्रेष्यपरित्याग, अनुमतित्याग और श्रमणभूत- इन तीन प्रतिमाओं के नामों को लेकर ही मुख्य अन्तर है, शेष नाम एक समान हैं। श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं में क्रम-विषयक मतभेद श्वेताम्बर-परम्परा में उपासक प्रतिमा के नाम क्रमश: इस प्रकार हैं1. दर्शन 2. व्रत 3. सामायिक 4. पौषध 5 नियम 6. ब्रह्मचर्य 7. सचित्तत्याग 8. आरम्भत्याग 9. प्रेष्यपरित्याग 10. उद्दिष्ट भक्तत्याग और 11. श्रमणभूत। दिगम्बर परम्परा में ग्यारह प्रतिमाओं के नाम एवं क्रम इस प्रकार है1. दर्शन 2. व्रत 3. सामायिक 4. पौषध 5 सचित्तत्याग 6. रात्रिभुक्तित्याग 7. ब्रह्मचर्य 8. आरम्भत्याग 9. परिग्रहत्याग 10. अनुमतित्याग और 11. उद्दिष्टत्याग। श्वेताम्बर और दिगम्बर-इन दोनों की नाम सूचियों के आधार पर देखें, तो प्रारम्भ के चार नामों एवं उनके क्रम में साम्य है, शेष प्रतिमाओं के नाम क्रम को लेकर विचार करें, तो श्वेताम्बर परम्परा में सचित्त त्याग का स्थान सातवाँ है, जबकि दिगम्बराम्नाय में उसका स्थान पाँचवां है। श्वेताम्बराम्नाय में ब्रह्मचर्य को छठवां स्थान प्राप्त है, जबकि दिगम्बर आम्नाय में ब्रह्मचर्य का स्थान सातवाँ है। श्वेताम्बर परम्परा में परिग्रहत्याग नाम की स्वतन्त्र प्रतिमा नहीं है, जबकि वह दिगम्बर-परम्परा में नवें स्थान पर है। श्वेताम्बर परम्परा में उद्दिष्टत्याग प्रतिमा में ही अनुमतित्याग प्रतिमा को समाविष्ट किया गया है, किन्तु दिगम्बर ग्रन्थों में इसे स्वतंत्र प्रतिमा स्वीकार कर दसवें स्थान पर रखा गया है, क्योंकि इस प्रतिमा में श्रावक उद्दिष्टभक्त ग्रहण न करने के साथ-साथ अन्य आरम्भ का भी समर्थन नहीं करता है। श्वेताम्बर - परम्परा में मान्य ग्यारहवीं श्रमणभूतप्रतिमा को दिगम्बर- परम्परा में उद्दिष्टत्यागप्रतिमा कहा गया है, क्योंकि इसमें श्रावक का आचार श्रमण के सदृश होता है। तत्त्वतः श्रमणभूत और उद्दिष्टत्याग- दोनों प्रतिमाएँ समानार्थक ही हैं। इसके सिवाय उपासक प्रतिमाओं के क्रम एवं संख्या के सम्बन्ध में कुछ दिगम्बर आचार्यों में भी मतभेद हैं। स्वामी कार्तिकेय ने इनकी संख्या बारह

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