Book Title: Jain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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उपधान तपवहन विधि का सर्वाङ्गीण अध्ययन ...355
योगवहन करने वाला जीव शुभ और भद्रिक - परिणाम को प्राप्त होता है। यहाँ तपसाधना एवं सूत्राभ्यास की दृष्टि से उपधान को योगवहन की कोटि में रखा गया है। इससे उच्चकोटि का देशविरति जीवन (श्रावक जीवन ) जीने का अवसर प्राप्त होता है।
• रात्रिभोजन, अभक्ष्यभक्षण, नाटक, सिनेमा और बढ़ती हुई लालसाओं का निरोध होता है।
• माता-पिता, भाई- बहन आदि स्वजनों के संसारवर्द्धक संपर्क का परित्याग होता है और चारित्र भावना का संपोषण होता है।
• ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार रूप पाँच आचारों का परिपालन होने से सदाचारमय जीवन का निर्माण होता है। • आत्मपरिणामों की भूमिका सरल-स्वच्छ और पवित्र बनती है। • अनंत जीवों को अभयदान मिलता है। शुभ भावों में रमणता होती है। • अनादिकालीन कर्मों का क्षय होता है। • चित्त एकाग्रता का अभ्यास होता है और • गणधर रचित सूत्रों का बहुमान होता है। 62
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इस प्रकार उपधान एक उत्तम क्रिया है । इसे विधिपूर्वक एवं श्रद्धायुत करने से मनुष्य जन्म सफल होता है अतः सभी गृहस्थ साधकों को उपधान तप का अनुष्ठान अवश्यमेव करना चाहिए। यदि किसी व्यक्ति में उतना तप करने की शक्ति नहीं हो, तो उसे उस पर श्रद्धा अवश्य रखना चाहिए और जब योग्यता एवं सामर्थ्य प्राप्त हो जाए, तब उपधान वहन हेतु तत्पर रहना चाहिए । उपधान न करने पर होने वाले दोष
अंगचूलिका नामक ग्रन्थ में कहा गया है कि योग (उपधान) विधि श्रमण भगवान महावीर द्वारा प्रवेदित है, प्रख्यात है, सुप्रज्ञप्त है, जो आत्माएँ ऐसी उत्तम योगविधि का आचरण नहीं करती हैं, जिनवाणी का विरोध करती हैं, वे सूत्र, अर्थ और तदुभय की शत्रु बनती हैं, जिनाज्ञा की विराधक बनती हैं, निह्नव (जिनवाणी का विपरीत कथन करने वाली ) बनती हैं, इस प्रकार अनंत संसारी बनती हैं। इस ग्रन्थ में यह भी निर्दिष्ट किया गया है कि जो साधु योगविधि का आचरण नहीं करते हैं, उनके सान्निध्य में योगविधि सम्बन्धी क्रियाकलाप करने वालों को एकान्त मिथ्यादृष्टि ही जानना चाहिए। 63
यहाँ प्रश्न उठ सकता है कि जो योगविधि का ज्ञाता हो और
तदनुरूप