Book Title: Jain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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302... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक ....
इस व्रत की उपादेयता के सम्बन्ध में विचार करें, तो बहुत-से प्रयोजन अनुभूति के स्तर पर कहे जा सकते हैं जैसे- इस व्रताचरण के माध्यम से मुनिधर्म के सच्चे स्वरूप का बोध होता है, उससे जीवन की चर्याओं का सम्यक् अभ्यास होता है, एक अहोरात्र के लिए साधक विषय-कषाय, आरम्भसमारम्भ, विकथा-विवाद, मोह-माया आदि कर्म-बन्धन कारक प्रवृत्तियों से मुक्त हो जाता है। इसके फलस्वरूप व्यापारजन्य एवं परिवारजन्य आसक्तिभाव का विच्छेद होने लगता है तथा साधक उत्तरोत्तर धर्मोन्मुखी बनता है। ___इस व्रत के माध्यम से वैचारिक परिवर्तन के साथ-साथ शारीरिक रोगों से भी उपशान्ति मिलती है। एक निश्चित अवधि तक के लिए बाह्य-हलचलों से मुक्त रहने के कारण डिप्रेशन, टेंशन, चिन्ता आदि वर्तमान युगीन रोगों से भी विश्रान्ति मिलती है। अनावश्यक विकल्पों से दूर रहने के कारण बौद्धिक क्षमताएँ विकसित होती हैं। साज-श्रृंगार आदि शारीरिक व्यापार से निवृत्त रहने के कारण शारीरिक बल में वृद्धि होती है और इससे आत्मिक बल भी जागृत होता है। जाप, स्वाध्याय, कायोत्सर्ग आदि शभक्रियाओं में स्थिर रहने के कारण पूर्वोपार्जित अशुभकर्म निर्जरित हो जाते हैं एवं आगामी पापक्रियाएँ संवृत्त हो जाती हैं।
समष्टि रूप में कहा जा सकता है कि यह व्रत साधना भौतिक और आध्यात्मिक-दोनों दृष्टियों से लाभदायक है। शरीरशास्त्रियों का यह अभिमत है कि पन्द्रह दिन या एक मास में शारीरिक-मांसपेशियों को आराम देना बहुत जरूरी है। पौषधव्रत के माध्यम से इस सिद्धान्त का अनुकरण सहजतया हो जाता है। सन्दर्भ-सूची 1. संस्कृतहिन्दीकोश, पृ. 636 2. पोसेइ कुसलधम्मे, जं तौहारादिचागणुट्ठाणं। इह पोसहोत्ति भण्णति, विहिणा जिणभासिएणेव।।
पंचाशकप्रकरण, 10/14 3. “पौषधे उपवसनं पौषधोपवास:, नियमविशेषाभिधानं चेदं पौषधोपवास"।
आवश्यकनियुक्ति, गा. 1561 की टीका