Book Title: Jain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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उपधान तपवहन विधि का सर्वाङ्गीण अध्ययन ... 327
= एक उपवास,
एक उपवास, चार एकलठाणा एक उपवास, तीन नीवि दो आयंबिल = एक उपवास तथा एक शुद्ध आयंबिल = एक उपवास होता है।
इस प्रकार अल्पवयी एवं असमर्थ व्यक्ति निर्दिष्ट तप-परिमाण को आपवादिक विधि से भी पूर्ण कर सकता है । जब नमस्कारमंत्र का तप परिमाण पूर्ण हो जाए अर्थात आठ उपवास और आठ आयंबिल - परिमाण जितना तप नवकारसी आदि के द्वारा पूरा कर लिया जाए, तब ही उन्हें नमस्कारसूत्र की वाचना देना चाहिए। यथोक्त तप की परिपूर्ति न होने तक वाचना नहीं देना चाहिए ।
पुनः भगवान महावीर कहते हैं
हे गौतम ! तप का अनिवर्चनीय महत्त्व है। व्यापार का त्याग करके रौद्रध्यान में एकाग्रचित्त बनी हुई आत्मा द्वारा किया गया एक आयंबिल मासक्षमण तप से बढ़कर होता है | 26
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हे भगवन् ! इस विधिपूर्वक उपधान करते हुए तो बहुत समय बीत जाएगा। यदि वह जीव बीच में ही कालधर्म को प्राप्त हो जाए, तो नमस्कारमहामंत्र से रहित वह किस प्रकार मोक्षमार्ग को साध सकता है ?
हे गौतम ! जिस समय से आराधक (बालजीवादि) सूत्रों की आराधना के लिए निश्छल भावयुक्त होकर यथाशक्ति तप का प्रारंभ कर देता है, उस समय से ही उस जीव को सूत्र - अर्थ पढ़ा हुआ जानना चाहिए, क्योंकि वह पंचमंगलसूत्र को विधिपूर्वक ग्रहण कर रहा है । वह सूत्रार्थ को ग्रहण करने के अध्यवसाय वाला होने से ही आराधक कहा जाता है। जैन विचारणा में सर्वत्र भावों का प्राधान्य रहा हुआ है। 27
हे भगवन् ! किसी जीव को श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम होने के कारण सुनने मात्र से नमस्कारमंत्र का सूत्रपाठ याद हो जाए, तो क्या उस जीव को भी तपोपधान करना चाहिए?
हे गौतम! उस जीव को भी उपधान करना चाहिए।
हे भगवन् ! उस जीव को उपधान क्यों करना चाहिए ?
हे गौतम् ! सुलभबोधि बनने के लिए उपधान करना चाहिए, अन्यथा वह ज्ञान कुशील कहलाता है | 28
मानदेवसूरिकृत उपधानप्रकरण में उपधान का महत्व प्रतिपादित करते हुए यह उल्लिखित किया है