Book Title: Jain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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322... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक
भक्ति करना सामान्य लोक व्यवहार है। यह उल्लेखनीय है कि उपधान का नकरा इतना कम होता है कि डेढ़ महीना में एक व्यक्ति अपने शरीर के लिए जितना खर्च करता है उसका आधा भाग भी नकरें का नहीं होता। इतना द्रव्य तो परमात्म भक्ति के निमित्त खर्च करना ही चाहिए ।
शारीरिक दृष्टि- कुछ लोग शरीर की दृष्टि से यह आक्षेप करते हैं कि उपवास या आयंबिल जैसे कठिन तप करने पर शरीर निर्बल और रोगी बनता है, अतः शरीर को स्वस्थ रखना है तो जिम और हेल्थ सेंटर आदि ही पर्याप्त है।
उपरोक्त तर्क सारहीन है । तपस्या द्वारा शरीर और आरोग्य को कभी हानि नहीं पहुँचती है। शारीरिक निर्बलता का मुख्य कारण विषयाधीनता है। जो भोगविलास एवं विषयवासनाओं में लीन रहते हैं, उनका शरीर निर्बल और रोग ग्रसित रहता है। तप द्वारा तो विषय वासनाएँ छूटती हैं, ब्रह्मचर्य निर्मल बनता है, संयमशक्ति की वृद्धि होती है, मानसिक विकार मन्द होते हैं, धार्मिक भाव प्रकट होते हैं और व्यसनादि से मुक्ति मिलती है। आधुनिक युग के बड़े-बड़े शरीरशास्त्रियों और वैज्ञानिकों ने इस बात को स्वीकार किया है कि जीवन को रोगमुक्त बनाने और उसके वास्तविक आस्वाद प्राप्त करने के लिए उपवास आदि विविध तप मानव के लिए अनिवार्य है।
जिस प्रकार आर्थिक संपत्ति का मुख्य आधार पूर्वकृत पुण्य है, उसी प्रकार शरीर-संपत्ति का मुख्य आधार तप है। संसार विज्ञों ने शरीर की सुन्दरता और सुडौलता के लिए जितनी जरूरत व्यायाम की मानी है, ज्ञानी पुरूषों ने उससे कईं गुना अधिक तप को आत्मोन्नति के लिए आवश्यक स्वीकार किया है। उपधान द्वारा तप करने का अभ्यास होता है । खमासमण, कायोत्सर्ग आदि के द्वारा व्यायाम हो जाने से शरीर बल तो बढ़ता ही है, आरोग्य भी प्राप्त होता है। इस व्यायाम का उद्देश्य शारीरिक बल को बढ़ाना नहीं है। यद्यपि इस प्रकार उक्त वर्णन से यह सिद्ध होता है कि उपधान तप करने से शरीर निर्बल होने के बजाय सशक्त और आरोग्य-क्षीण होने के बदले स्वस्थ बनता है। अन्य भी कई लाभ इस अनुष्ठान द्वारा प्राप्त होते हैं।
उपधानवाही उपधानतप पूर्ण होने पर बाह्यदृष्टि से उपधानवाही शरीर अवश्य कृश लगता है, परन्तु उसके मुख की कान्ति और आँखों का तेज बढ़