Book Title: Jain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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बारहव्रत आरोपण विधि का सैद्धान्तिक अनुचिन्तन ... 171
कि नियम ग्रहण करने वाला साधक रात्रि को पुनः उसका चिंतन करे कि गृहीत मर्यादा का भूलवश उल्लंघन तो नहीं हुआ है ? यदि हुआ हो, तो प्रायश्चित्त ग्रहण करें। इन नियमों के आधार पर सातवें व्रत में जो मर्यादाएँ स्वीकारी गईं थीं, उनका और भी संकोच किया जाता है। इसी तरह अन्य व्रतों की मर्यादाओं का भी संकोच किया जाता है। स्थानकवासी परम्परा में 'चौदह नियम' स्वीकार करने को दयाव्रत या छ: कायव्रत कहते हैं।
यह नियम-विधि एक बार गुरूगमपूर्वक समझनी चाहिए। इस व्रत में गमनागमन की जितनी सीमाएँ रखी जाती है, उसके अतिरिक्त श्रावक के स्थूल और सूक्ष्म- सभी पापों का त्याग हो जाता है | 88
इस प्रकार देश यानी दिशाव्रत में रखा हुआ जो विभाग - अवकाश या क्षेत्र - सीमा है उसे और भी कम करना देशावकाश है। इसे व्रतरूप में स्वीकारना देशावगासिक-व्रत है।
देशावगासिक व्रत के अतिचार - इस व्रत का निर्दोष पालन करने के लिए निम्न पाँच प्रकार के अतिचारों का सेवन नहीं करना चाहिए - 1. आनयन प्रयोग- अपने लिए मर्यादित क्षेत्र के बाहर से वस्तु लाना या मंगवाना |
2. प्रेष्य प्रयोग- सेवक आदि के द्वारा मर्यादित क्षेत्र के बाहर वस्तु भेजना। 3. शब्दानुपात - मर्यादित क्षेत्र के बाहर शब्द आदि के द्वारा अपना कार्य
करवाना।
4. रूपानुपात - संकेत, इशारे, आदि के द्वारा मर्यादित क्षेत्र के बाहर खड़े व्यक्ति से कार्य करवाना।
5. पुद्गल प्रक्षेप - मर्यादित क्षेत्र के बाहर कंकर, पत्थर आदि फेंककर किसी को अपनी ओर बुलाना, अपना अभिप्राय समझाना ।
इस प्रकार संकेत, आदेश या कंकर आदि के द्वारा अपने कार्यों को पूर्ण करना देशावगासिक-व्रत के दोष हैं।
देशावगासिक व्रत की उपादेयता - इस व्रत का अनुपालन करने से अल्पकाल के लिए गृहस्थ जीवन से निवृत्ति मिलती है, जिसके फलस्वरूप श्रावक हिंसादि-पापों से बचता है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने इस व्रत की उपादेयता बताते हुए कहा है - जिस प्रकार विषैले सर्प आदि के काट लेने पर उसका विष