Book Title: Jain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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सामायिक व्रतारोपण विधि का प्रयोगात्मक अनुसंधान ...227 • रत्नसंचयप्रकरण के अनुसार त्रियोग की शुद्धिपूर्वक एवं बत्तीस दोषरहित सामायिक करने से मोक्षसुख की प्राप्ति होती है।28 सामायिक के उपकरणों का स्वरूप एवं प्रयोजन
सामायिक-साधना में मुख्यतया आसन, चरवला एवं मुखवस्त्रिका का उपयोग होता है। इनका सामान्य वर्णन निम्नानुसार है___ आसन- शास्त्रीय परिभाषा में इसे काष्ठासन कहते हैं। इसका एक अन्य नाम पादपोंछन भी है। वर्तमान में यह आसन के नाम से रूढ़ है। आसन ऊन का होना चाहिए। सूती या टेरीकोट आदि का आसन निषिद्ध माना है। ऊनी वस्त्र में ग्राहकता का गुण है, अतएव ऊनी आसन पर बैठकर साधना करने से शक्तियाँ जागृत होती हैं तथा वह ऊर्जा स्रोत साधक के अपने दायरे में ही सीमित रहता है। क्रमश: वे शक्तियाँ बलवती बनती हैं
और साधक उन संचित शक्तियों के माध्यम से विविध सिद्धियाँ प्राप्त कर सकता है। भूमि पर बैठकर साधना करने से अर्जित शक्तियाँ समाप्त हो जाती हैं, क्योंकि भूमि में गुरूत्वाकर्षण का गुण है। इस प्रकार आसन का प्रयोजन आत्मिक एवं भावनात्मक शक्तियों का संग्रह करना है।
दूसरा कारण यह है कि साधना के लिए बिना आसन बैठने पर अन्य व्यक्ति यह समझ नहीं पाएगा कि वह सामायिक में बैठा हुआ है या ऐसे ही बैठा है। यह ज्ञात न होने पर वह व्यक्ति उससे अनावश्यक वार्तालाप कर सकता है अथवा बिना आसन के वह स्वयं भी सामायिक को विस्मृत कर सकता है, इधर-उधर आ-जा सकता है, ऐसे कईं दोषों की संभावनाएँ बनी रहती है।
गृहस्थ श्रावक का आसन लगभग डेढ़ हाथ लम्बा और सवा हाथ चौड़ा होना चाहिए।
मुखवस्त्रिका- इसका सीधा सा अर्थ है मुख पर लगाने का वस्त्र। मुखवस्त्रिका का प्रयोग मुख्यत: जीवरक्षा एवं आशातना से बचने के लिए किया जाता है, जैसे-स्वाध्याय करते समय पुस्तक पर थूकादि न उछल जाए, गुरू भगवन्त से धर्म चर्चा करते समय उन पर थूकादि के छींटे न लग जाए, सूत्रादि का उच्चारण करते समय थूक आदि से स्थापनाचार्य की आशातना न हो जाए। संपातिम त्रस जीव जो सर्वत्र उड़ते रहते हैं, वे इतने