Book Title: Jain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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अध्याय - 5
पौषधव्रत विधि का सामयिक अध्ययन
पौषध जैन गृहस्थ का एक आवश्यक व्रत है। सामान्यतया यह व्रत अष्टमी - चतुर्दशी - पूर्णिमा आदि पर्व तिथियों के दिन चतुर्विध आहार के त्यागपूर्वक किया जाता है । इस व्रत के माध्यम से चार प्रहर या आठ प्रहर के लिए सांसारिक, पारिवारिक, व्यापारिक एवं शारीरिक समस्त प्रकार की पाप प्रवृत्तियों से दूर हटकर एकान्त स्थान में या धर्म स्थान में रहकर आत्मचिन्तन की साधना की जाती है। इसका दूसरा नाम 'पौषधोपवास' है।
यह बारह व्रतधारी जैन श्रावक का ग्यारहवाँ व्रत है। चार शिक्षाव्रतों में इसका तीसरा स्थान है। श्रावक के बारह व्रतों में चार शिक्षाव्रतों का क्रम पूर्णतः मनोवैज्ञानिक एवं अध्यात्ममूलक है। प्रथम सामायिक शिक्षाव्रत में साधक 48 मिनट के लिए सावद्य ( हिंसात्मक) प्रवृत्तियों से दूर हटता है और समताभाव में रहने की साधना करता है। द्वितीय देशावगासिक शिक्षाव्रत में 12 से 15 घंटे के लिए सावद्य पापों से विरत होता है, जबकि तृतीय पौषधोपवास शिक्षाव्रत में सम्पूर्ण दिवस-रात्र के लिए उपवासपूर्वक हिंसाजन्य प्रवृत्तियों का त्याग किया जाता है। इस प्रकार शिक्षाव्रतों को क्रमशः धारण करके श्रावक अपना आत्म विकास करता है। इनमें पौषधव्रत की आराधना का सर्वोच्च स्थान है। चूंकि पौषधव्रती एक अहोरात्रिपर्यन्त मुनि जीवन की भाँति अपनी जीवन चर्या बिताता है अतः पौषधव्रत एक आत्मिक आराधना है ।
पौषध शब्द का तात्त्विक अर्थ
पौषध शब्द 'पुष्' धातु से निष्पन्न है । संस्कृतकोश के अनुसार पुष् के विभिन्न अर्थ हैं- पोषण, संपालन, पुष्टि, वृद्धि, संवर्धन, समृद्धि, प्राचुर्य, आदि। यहाँ आत्म भावों का पोषण करना, आत्म भावों को पुष्ट करना, आत्म भावों की वृद्धि करना, आत्मिक अध्यवसायों का संवर्धन करना इत्यादि अर्थ मान्य हैं।