Book Title: Jain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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बारहव्रत आरोपण विधि का सैद्धान्तिक अनुचिन्तन ...187 ही साधक का लक्ष्य है। यदि साधक उतनी उत्कृष्ट साधना नहीं कर पाता है, तो वह गृहस्थाश्रम में रहकर व्रतों का पालन कर सकता है। वैदिक-परम्परा की तरह जैनधर्म ने गृहस्थधर्म को प्रमुख धर्म नहीं माना, बल्कि श्रमणधर्म की ओर बढ़ने का लक्ष्य लिए एक मध्य-विश्राम मात्र माना है। आनन्द श्रावक ने व्रत ग्रहण करते समय श्रमण भगवान् महावीर से कहा-“भगवन् ! मुझे निर्ग्रन्थ धर्म पर अपार श्रद्धा है। आपके उपदेश को श्रवण कर अनेक राजा, युवराज, सेठ, सेनापति, सार्थवाह मुण्डित होकर गृहस्थाश्रम का त्याग कर श्रमण बने हैं, किन्तु मैं श्रमण बनने में असमर्थ हूँ, अत: गृहस्थधर्म को स्वीकार करता हूँ।"118
तात्पर्य यह है कि जैन-श्रमणोपासक गृहस्थाश्रम में रहना अपनी कमजोरी मानता है, उसे वैदिक-परम्परा की भाँति आदर्श नहीं मानता। यही वजह है कि श्रमणधर्म का विशेष रूप से प्रतिपादन हुआ है। आगम साहित्य में अनेक स्थलों पर कहीं संक्षिप्त तो कहीं विस्तृत रूप से श्रावक धर्म के सम्बन्ध में भी चिन्तन किया गया है।
__ आगम साहित्य के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए, तो सर्वप्रथम आचारांगसूत्र में आचारधर्म का जो विश्लेषण है, वह श्रमण-जीवन को ध्यान में रखकर किया गया है। गृहस्थ-जीवन के सम्बन्ध में वर्णन नहीं के समान है। इसी तरह सूत्रकृतांगसूत्र में भी लगभग श्रमणधर्म से सम्बन्धित विषयों पर प्रकाश डाला गया है, कहीं-कहीं श्रावकों के व्रतों पर किंचित् वर्णन हुआ है। इसके द्वितीय श्रुतस्कन्ध के सप्तम अध्ययन 'नालंदीय' में श्रावक के प्रत्याख्यान आदि विषयों पर महत्वपूर्ण चिन्तन किया गया है।
स्थानांगसूत्र में अनेक स्थलों पर चारित्रधर्म के सम्बन्ध में चिन्तन-सत्र मिलते हैं। इसमें चारित्रधर्म को आगार और अणगार-ऐसे दो भागों में विभक्त किया है। आगार-चारित्रधर्म का अधिकारी गृहस्थ को कहा है। इसके साथ ही गृहस्थ साधक के लिए प्रतिदिन चिन्तन करने योग्य तीन मनोरथ बताए गए हैं जैसे- 1. मैं कब अल्प या बहुत परिग्रह का त्याग करूँगा? 2. मैं कब मुण्डित होकर आगारधर्म से अणगारधर्म में प्रव्रजित होऊँगा ? 3. मैं कब संलेखनाव्रत की आराधना करता हुआ समाधिमरण को प्राप्त करूँगा?119
इसमें श्रमणोपासक के निम्न चार प्रकार भी बताए हैं1201. कुछ रात्निक उपासक महाकर्मा, महाक्रिय, अनातापी (अतपस्वी) और