Book Title: Jain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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बारहव्रत आरोपण विधि का सैद्धान्तिक अनुचिन्तन ...159 जाता है। तृष्णा पर नियन्त्रण होने से संग्रह भावना का मूल बीज नष्ट हो जाता है। इससे व्यक्ति की चंचलवृत्तियों पर अंकुश लगता है।
आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार दिग्वती श्रावक जगत् पर आक्रमण करने वाले अभिवृद्ध लोभ रूपी समुद्र को आगे बढ़ने से रोक देता है।58 इस तरह इस व्रत के माध्यम से लोभवृत्ति और लोभवृत्ति के कारण होने वाली हिंसा को सीमित किया जाता है।
इससे व्यापार-क्षेत्र की सीमा निर्धारित हो जाने से भागमभाग की जिन्दगी एवं अन्याय-छल आदि की प्रवृत्तियाँ न्यूनतम हो जाती हैं।
चौदह रज्जु-परिमित सम्पूर्णलोक का पापास्रव रूककर मर्यादित क्षेत्र जितना खुला रहता है। अनावश्यक गमनागमन से होने वाले कर्मबन्धन से बच जाता है। हलचल कम होने से मानसिक शान्ति में वृद्धि होती है तथा सन्तोषवृत्ति का गुण उत्तरोत्तर विकसित होता है। 7. उपभोगपरिभोग परिमाण व्रत ___'उपभुज्यते इति उपभोगः'- इस निरूक्ति के अनुसार उपभोग शब्द का अर्थ है एक बार भोगा जाने वाला पदार्थ जैसे-भोजन, पानी, अंगविलेपन आदि। 'परिभज्यते इति परिभोग:'- इस निरूक्ति के अनुसार परिभोग शब्द का अर्थ है बार-बार भोगा जाने वाला पदार्थ जैसे-वस्त्र, पात्र, शय्या आदि। उपभोग और परिभोग में आने वाली वस्तुओं की मर्यादा निश्चित करना उपभोगपरिभोग परिमाण-व्रत है।59
जैन साहित्य में उपभोग-परिभोग के उपर्युक्त अर्थ के अतिरिक्त अन्य अर्थ भी किए गए हैं। भगवतीसूत्र0 और हरिभद्रीय आवश्यकटीका1 में पदार्थ के एक बार भोग करने को परिभोग कहा है। अभिधानराजेन्द्रकोष,62 धर्मसंग्रह:3
और उपासकदशाटीका में उपभोग का अर्थ बार-बार उपयोग में आने वाली सामग्री और परिभोग का अर्थ एक बार उपयोग में आने वाली सामग्री किया है।
रत्नकरण्डक श्रावकाचार में भोग का अर्थ एक बार भोगने योग्य पदार्थ और उपभोग का अर्थ पुन:-पुन: भोगने योग्य पदार्थ किया है। इस दृष्टि से इस व्रत का नाम भोगोपभोगपरिमाणव्रत ऐसा भी प्रसिद्ध है।
उपभोग-परिभोगव्रत की एक अन्य व्याख्या इस प्रकार उपलब्ध होती हैजो पदार्थ शरीर के आन्तरिक भाग से भोगे जाते हैं वे उपभोग हैं तथा जो पदार्थ