Book Title: Jain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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96... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक ....
इस सन्दर्भ में आचार्य कन्दकन्द ने लिखा है कि87 जो पुरूष अनेक प्रकार के शास्त्रों को जानता है, किन्तु सम्यक्त्व रूपी रत्न से भ्रष्ट हैं वे आराधना से रहित होते हुए संसार में ही परिभ्रमण करते हैं तथा सम्यक्त्व से रहित होकर हजार कोटि वर्ष तक तप करते रहें, तब भी स्वरूप की प्राप्ति नहीं होती अत: इस संसार में सम्यग्दर्शन दुर्लभ है, ज्ञान और चारित्र को उत्पन्न करने वाला है और धर्मरूपी वृक्ष के लिए जड़ के समान है।88 इस सम्यग्दर्शन के बिना इस जीव का ज्ञान मिथ्याज्ञान और चारित्र मिथ्याचारित्र कहलाता है। वहीं इन दोनों की यथार्थता का कारण है।89
इस प्रकार यह पूर्णतया स्पष्ट हो जाता है कि रत्नत्रय में सम्यग्दर्शन ही सर्वोत्कृष्ट है और वही मोक्ष का अनन्तर कारण है। सम्यग्दर्शन को कैसे पहचाने ?
यह सरल किन्तु गहन प्रश्न है कि सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई या नहीं, इसे कैसे पहचाने ? आचार्य हरिभद्रसूरि ने उपदेशपद में लिखा है कि सम्यक्त्व की अनुभूति को वचन के माध्यम से कहना शक्य नहीं है। इसे अनुभव के आधार पर ही समझा जा सकता है। यह संसार का अन्त करने वाले मोक्ष नाम का प्रथम चरण है। ज्ञानी पुरूषों ने स्वयं के शुद्धस्वरूप की अनुभूति के द्वारा ही इसे जाना है।
आचारांगसूत्र में कहा गया है कि शुद्ध आत्मस्वरूप की अभिव्यक्ति के लिए सभी स्वर निवर्तित हो जाते हैं (परमात्मा का स्वरूप शब्दों के द्वारा कहा नहीं जा सकता)। वहाँ कोई तर्क नहीं टिकता (आत्मस्वरूप तर्क द्वारा गम्य नहीं है)। मति भी उस विषय को ग्रहण नहीं कर पाती (बुद्धि द्वारा ग्राह्य नहीं है)। वह आत्मा परिज्ञ है, संज्ञ(सामान्य रूप से सभी पदार्थों को सम्यक जानती) है, चैतन्यमय ज्ञानधन है, उसका बोध कराने के लिए कोई अपना नहीं है, वह अरूपी सत्ता है, वह पदातीत है, उसका (बोध कराने के लिए) कोई पद नहीं है।90
जैसे किसी पदार्थ की मधुरता का वर्णन करना हो, तो उपमान के द्वारा ही संभव है, परन्तु वह मधुरता वास्तविक रूप में कैसी है ? उसे शब्दों के माध्यम से नहीं कहा जा सकता। इसीलिए कहा गया है कि इक्षु, दूध और गुड़ की मधुरता में अन्तर है, परन्तु इस भेद को अभिव्यक्त करने में सरस्वती भी समर्थ नहीं है।