Book Title: Jain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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148... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक
आदि हीन वृत्तियाँ पनपती हैं, तो वह स्तेय की ओर प्रवृत्त होता है। किसी भी बढ़िया वस्तु को प्राप्त करने की लालसा से व्यक्ति चोरी जैसा निम्न कार्य करता है। 33
अस्तेय व्रत की सुरक्षा के लिए यह आवश्यक है कि अनावश्यक आवश्यकताएँ कम की जाएं, अनुचित एवं गलत उपायों से धन प्राप्त करने की कामना बिल्कुल न की जाए, क्योंकि अधिकांश चोरियाँ आसक्ति और लालसा से प्रेरित होकर की जाती हैं। इसका दूसरा कारण भूखमरी और बेकारी भी है। तीसरा कारण फिजूलखर्ची, चौथा कारण यश कीर्ति एवं प्रतिष्ठा की भूख है, पाँचवा कारण स्वभाव है। अशिक्षा और कुसंगति के कारण भी व्यक्ति चोरी करने के लिए विवश होता है।
अचौर्य अणुव्रत के अतिचार- गृहस्थ व्रती को न केवल स्थूल चोरी का त्याग करना चाहिए, अपितु जो प्रकट में चोरी नहीं दिखते हुए भी चोरी के ही प्रतिरूप हैं, उन दोषों का भी परित्याग करना चाहिए। वे दोष (अतिचार) पाँच प्रकार के कहे गए हैं34
1. स्तेनाहत - चोर द्वारा चुराई गई वस्तु खरीदना ।
2. स्तेनप्रयोग- चोर को चोरी करने की प्रेरणा देना या उसके कार्यों में सहयोग देना ।
3. विरूद्धराज्यातिक्रम- राज्य द्वारा निषिद्ध व्यापार करना, राजकीय नियमों का उल्लंघन करना, कर वंचन करना आदि।
4. कूटतुलाकूटमान- वस्तु के लेन-देन में झूठा माप-तौल करना, अथवा ग्राहक से अधिक मूल्य लेकर तौल में कम देना ।
5. तत्प्रतिरूपक व्यवहार - वस्तु में मिलावट करके देना, नकली को असली बताकर देना जैसे- गेहूँ में कंकर, कालीमिर्च में पपीते के बीज, जीरे में रेत, दूध में पानी आदि मिलाना।
श्रावक को इन अतिचारों से बचना चाहिए।
अचौर्यव्रत की उपादेयता - स्थूल चोरी का परित्याग करने पर श्रावक का जीवन लोक व्यवहार की दृष्टि से विश्वस्त और प्रामाणिक बनता है, उसके चारित्रिक बल में वृद्धि होती है, एवं वह अनेकों का प्रिय पात्र और उसका जीवन सर्वत्र सम्माननीय बनता है। वह सदैव निःशंक रहता है, इससे लोभ वृत्ति पर