Book Title: Jain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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सम्यक्त्वव्रतारोपण विधि का मौलिक अध्ययन ... 95
त्रिविध मोक्षमार्ग में सम्यक्त्व का स्थान
सम्यग्दर्शन, सम्यकज्ञान एवं सम्यकचारित्र रूप मोक्षमार्ग में सम्यग्दर्शन का वही स्थान है, जो भवन में नींव का और वृक्ष में बीज का होता है । जैसे नींव के बिना भवन का निर्माण सम्भव नहीं है तथा बीज के अभाव में वृक्ष की उत्पत्ति, वृद्धि और फल की प्राप्ति असम्भव है, उसी प्रकार सम्यक्त्व के अभाव में ज्ञान और चारित्र की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फल की प्राप्ति असंभव है। 80 अतः इन तीनों में सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का सम्यक् प्रयत्न करना चाहिए, क्योंकि उसके होने पर ही सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र होते हैं। 81 कोई जीव सम्यक्त्व के बिना ग्यारह अंग तक पढ़ ले, तो भी अज्ञानी ही कहा जाता है तथा महाव्रतों का पालन कर अन्तिम ग्रैवेयक तक पहुँच जाए, तो भी असंयमी ही कहलाता है। सम्यक्त्व सहित जितना भी ज्ञानरूप प्रवर्तन हो, वह सब सम्यग्ज्ञान है और थोड़ा भी त्यागरूप प्रवर्त्तन करें, तो उसे सम्यक्चारित्र कहा जाता है। जिस प्रकार अंकसहित शून्य हो, तो वह गिनती में आता है, अन्यथा शून्य शून्य रहता है, उसी प्रकार सम्यक्त्व के बिना ज्ञान और चारित्र शून्यरूप ही है, अतः पहले सम्यक्त्व - प्राप्ति की साधना करनी चाहिए। 82 उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप-ये मोक्ष के मार्ग हैं, जिसका प्रतिपादन श्रेष्ठ दर्शनधारक जिनेश्वरों ने किया है। 83
यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि इस गाथा में ज्ञान के बाद दर्शन का स्थान है, किन्तु इसी अध्याय में यह भी निर्दिष्ट किया है कि दर्शन बिना ज्ञान नहीं होता, ज्ञान के बिना चारित्र के गुण उत्पन्न नहीं होते, चारित्र गुण की प्राप्ति के बिना मोक्ष नहीं होता, यानी कर्म से विमुक्ति नहीं होती और उसके अभाव में निर्वाण नहीं होता । 84 इसी बात का समर्थन करते हुए आचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव में लिखा है 85 साधुजन उस सम्यग्दर्शन को चारित्र और ज्ञान का बीज, यम और प्रशम का प्राण तथा तप और आगम का आश्रय मानते हैं। इसी क्रम में यह भी कहते हैं " - जो जीव चारित्र और ज्ञान से भ्रष्ट हैं, वे सम्यक्त्व के बल से रत्नत्रयपूर्वक मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं, परन्तु जो प्राणी सम्यग्दर्शन से रहित हैं, वे इस संसार में कभी भी मुक्ति को प्राप्त नहीं होते हैं।