Book Title: Jain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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बारहव्रत आरोपण विधि का सैद्धान्तिक अनुचिन्तन ...141 आवश्यक कार्यों हेतु की जाने वाली आरंभी हिंसा से व्रत का भंग नहीं होता है।
2. उद्योगी हिंसा- आजीविका का निर्वहन करने के लिए औद्योगिक एवं व्यावसायिक कार्य, कृषि-कर्म आदि का व्यापार इत्यादि कार्यों में होने वाली हिंसा उद्योगी हिंसा कहलाती है। आवश्यक कार्य के निमित्त होने वाली उद्योगी हिंसा से व्रत खंडित नहीं होता है, क्योंकि गृहस्थ के लिए व्यापार करना जरूरी है।
3. संकल्पी हिंसा- किसी भी जीव की संकल्पपूर्वक हिंसा करना संकल्पी हिंसा है। इस हिंसा को दो भागों में बाँट सकते हैं।
• अपराधी हिंसा- जो हिंसा अकारण ही अपराध या हिंसक वृत्ति की तष्टि के लिए की जाती है, वह अपराधी हिंसा है। जैसे-किसी जीव को सताना, भयभीत करना, परतन्त्र बनाकर रखना, मिथ्या दोषारोपण करना, मर्मकारी वचनों का प्रयोग करना। ये सारी हिंसाएँ संकल्पपूर्वक होने से अपराधी हिंसा रूप हैं।
• आत्मरक्षार्थ हिंसा- स्वयं की आत्मरक्षा के निमित्त की जाने वाली हिंसा। जैसे-आक्रमणकारी, अपहर्ता, चोर, लंपट, हिंसकपशु आदि को मारना आत्मरक्षार्थ हिंसा है। व्रती गृहस्थ के लिए इस प्रकार की हिंसा क्षम्य होती है, किन्तु व्रती गृहस्थ को इस प्रकार की हिंसा में भी यह विवेक रखना जरूरी है कि उक्त अपराधियों को न्यायोचित दंड ही दें। इस विषय में यह जान लेना भी आवश्यक है कि यदि गृहस्थ व्रती अन्याय प्रतिकार और आत्मरक्षा के निमित्त त्रस हिंसा भी करता है, तो वह अपने साधना मार्ग से च्युत नहीं होता। शास्त्रों में इसका साक्षात उदाहरण पढ़ने को मिलता है। महाराजा चेटक और मगधाधिपति अजातशत्रु दोनों का पारस्परिक युद्ध हुआ। हजारों लोग मारे गए, यद्यपि अन्याय प्रतिकार के निमित्त की गई हिंसा के आधार पर भगवान महावीर की दृष्टि में महाराजा चेटक को आराधक माना गया, विराधक नहीं। इससे स्पष्ट होता है कि जैन विचारणा में अन्यायी और आक्रमणकारी के प्रति की गई हिंसा से गृहस्थ का व्रत खण्डित नहीं होता है। निशीथचूर्णि में तो यहाँ तक कहा गया है कि ऐसी अवस्था में गृहस्थ का तो क्या, साधु का भी व्रत खण्डित नहीं होता है, बल्कि अन्याय का प्रतिकार न करने वाला साधक स्वयं दण्ड का भागी बनता है।