Book Title: Jain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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बारहव्रत आरोपण विधि का सैद्धान्तिक अनुचिन्तन ... 143
का अभाव होने से साधु को अनगार कहा है।
अहिंसाव्रत के अतिचार- गृहस्थ साधक को अहिंसा अणुव्रत का सम्यक् परिपालन करने के लिए निम्न दोषों से बचना चाहिए 19 -
1. बन्ध- किसी भी त्रस प्राणी को या क्रूर पशुओं को बन्धन में बांधना, पक्षियों को पिंजरे में बंद करना आदि।
2. वध- किसी भी व्यक्ति या पशु को अकारण मारना पीटना, उन पर अनावश्यक भार डालना, अनैतिक ढंग से शोषण करना आदि।
3. छविच्छेद- किसी भी प्राणी के अकारण अंगोपांग काटना, अंग का छेद करना, आदि छविच्छेद है । इसका दूसरा अर्थ वृत्तिच्छेद भी कर सकते हैं। किसी की आजीविका का सम्पूर्ण छेद करना, उचित पारिश्रमिक से कम देना, आदि भी छविच्छेद हैं।
4. अतिभारारोपण- बैल, ऊँट, घोड़ा, आदि पशुओं पर या अनुचर एवं कर्मचारियों पर उनकी शक्ति से अधिक बोझ लादना, अतिभारारोपण है। किसी के द्वारा क्षमता से अधिक काम करवाना भी अतिभार है।
5. भक्तपानविच्छेद- कर्मचारी आदि अधीनस्थों को यथासमय वेतन न देना, भोजन - पानी न देना, आदि भक्तपानविच्छेद है।
अहिंसाणुव्रत की उपादेयता - जैनधर्म और दर्शन का विकास अहिंसा के आधार पर हुआ है। अहिंसा जैनधर्म का प्राण है, आत्मविकास का मुख्य सोपान है, मैत्री, करूणा, प्रमोद और माध्यस्थ भावनाओं के प्रकटीकरण का मूल स्रोत है, वैश्विक समस्याओं का शाश्वत समाधान है, पारिवारिक विघटनों के निराकरण का बीजमंत्र है। वस्तुतः अहिंसाणुव्रत का परिचरण करने से अनेक जीवों को अभयदान मिलता है, प्रमादाचरण से होने वाली हिंसाजन्य प्रवृत्ति अवरूद्ध हो जाती है। परिणामस्वरूप, गृहस्थधर्म में अनुप्रविष्ट होता हुआ साधक 'जीओ और जीने दो' के सिद्धांत को आत्मचरितार्थ कर लेता है। सामान्यतया, इस व्रत के पालन से आरोग्य, अप्रतिहत उन्नति, आज्ञाकारित्व(स्वामित्व), अनुपमरूप सौन्दर्य, उज्ज्वलकीर्ति, धन, यौवन, निरूपक्रमी दीर्घायुष्य, भद्रपरिवार, आदि चराचर विश्व की श्रेष्ठ वस्तुएं प्राप्त होती हैं। 20
हानियाँ - जैनाचार्यों के मतानुसार जीव हिंसा करने से पंगुता, कुणिता,