Book Title: Jain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
View full book text
________________
100... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक
लिए इन गुणों का होना आवश्यक माना है। योगशास्त्र के अभिप्रायानुसार श्रावक के पैंतीस गुण अग्रांकित हैं 101 -
1. न्याय नीतिपूर्वक धनोपार्जन करना 2. समाज में जो ज्ञानवृद्ध और वयोवृद्ध शिष्टजन हैं, उनका यथोचित सम्मान करना, उनसे शिक्षा ग्रहण करना और उनके आचार की प्रशंसा करना 3. समान कुल और समान आचार-विचार वाले स्वधर्मी, किन्तु भिन्न गोत्रोत्पन्न जनों की कन्या के साथ विवाह करना 4. चोरी, परस्त्रीगमन, असत्यभाषण आदि पापाचार का त्याग करना 5. अपने देश के कल्याणकारी आचार-विचार एवं संस्कृति का पालन करना 6. दूसरों की निन्दा न करना 7. योग्य मकान में निवास करना, जो न अधिक खुला हो और न अधिक गुप्त जिसमें निराबाध रूप से वायु एवं प्रकाश आ सके 8 सदाचारी जनों की संगति करना 9 माता-पिता का सम्मान-सत्कार करना 10. अनुकूल ग्राम या नगर में निवास करना 11. देश, जाति एवं कुल से विरूद्ध कार्य न करना, जैसे-मदिरापान, आदि 12. आय से अधिक व्यय न करना, 13. देश और काल के अनुसार वस्त्राभूषण धारण करना 14. बुद्धि के आठ गुणों से युक्त होना 15. धर्मश्रवण की इच्छा रखना 16. अजीर्ण होने पर भोजन न करना 17 समय पर प्रमाणोपेत भोजन करना 18. धर्म, अर्थ और काम- पुरूषार्थ का उचित सेवन करना 19. अतिथि, साधु और दीनजनों को यथायोग्य दान देना 20. आग्रहशील न होना 21. सौजन्य, औदार्य, दाक्षिण्य, आदि गुणों को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहना 22. अयोग्य देश और अयोग्य काल में गमन न करना 23. देश, काल, वातावरण और स्वकीय - सामर्थ्य का विचार करके ही किसी कार्य को प्रारम्भ करना 24. आचारवृद्ध और ज्ञानवृद्ध पुरूषों की यथोचित सेवा करना 25. माता-पिता, पत्नी-पुत्र, आदि आश्रितों का यथायोग्य भरण-पोषण करना 26. दीर्घदर्शी होना 27. विवेकशील होना 28. कृतज्ञ होना - उपकारी के उपकार का स्मरण करना 29. विनम्र होना 30. लज्जाशील होना 31. करूणाशील होना 32. सौम्य होना 33. यथाशक्ति परोपकारी होना 34. काम, क्रोध, मोह, मद और मात्सर्य - इन आन्तरिक शत्रुओं से बचने का प्रयत्न करना और 35. इन्द्रियों को उच्छृंखल न होने देना ।