Book Title: Jain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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98... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक
भव करने होते हैं और जघन्य से दो-तीन भव। इसके पश्चात् उनके संसार का उच्छेद हो जाता है। जो सम्यक्त्व से च्युत हो गए है, उनके लिए कोई नियम नहीं है | 96
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दिगम्बराचार्यों के अनुसार मिथ्यात्व का नाश होने पर सम्यक्त्व की उत्पत्ति होती है और सम्यग्दर्शन उत्पन्न होने पर मिथ्यात्व से सम्बन्धित सोलह प्रकृतियाँ और अनन्तानुबन्धी- कषाय से सम्बन्धित पच्चीस प्रकृतियाँकुल मिलाकर इकतालीस कर्म-प्रकृतियों का बन्ध मिट जाता है और अन्त: कोड़ाकोड़ी सागर की स्थिति रह जाती है। 97
सम्यग्दर्शन का फल इन बिन्दुओं से भी ज्ञात किया जा सकता है कि सम्यग्दृष्टि जीव मरकर प्रथम नरक को छोड़कर शेष छः नरकों में नहीं जाता। भवनवासी, ज्योतिष एवं व्यन्तरदेवों में उत्पन्न नहीं होता। किसी जीव को नरकायु का बंध होने के बाद सम्यग्दर्शन उत्पन्न हुआ हो, तो वह जीव प्रथम नरक में ही उत्पन्न होता है जैसे - राजा श्रेणिक। इसी प्रकार किसी को देवायु का बन्ध होने के पश्चात् सम्यग्दर्शन हुआ हो, वह जीव सौधर्मादि स्वर्गो में महर्द्धिक देव होता है। सम्यग्दृष्टि जीव एकेन्द्रिय ( पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति), विकलेन्द्रिय ( द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय) तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय में उत्पन्न नहीं होता | 98
समाहारतः सम्यग्दर्शनयुक्त जीव परम्परा से मोक्षरूप परमधाम को प्राप्त होता है तथा जब तक संसार में रहता है, वह दुर्गति के कारणभूत अशुभकर्म को नहीं बांधता है और पूर्वसंचित पापकर्म का नाश कर लेता है। यही सम्यग्दर्शन का महान् फल है।
यही समाधान सम्यक्त्व के सम्बन्ध में घटित होता है। सम्यक्त्व प्राप्ति की वास्तविक पहचान सम्यक्त्वी जीव ही कर सकता है, उस आस्वाद की अनुभूति उसी के लिए संभव है। व्यवहारिक दृष्टि से सड़सठ गुणों का श्रद्धान या आचरण करने वाला भव्य जीव सम्यक्त्वी या सम्यग दृष्टि कहलाता है। 99 सम्यक्त्वग्राही की पूर्व योग्यता
यह अनुभवसिद्ध है कि जो व्यक्ति जीवन के सामान्य व्यवहार में कुशल नहीं है, वह आध्यात्मिक जीवन की साधना में आगे नहीं बढ़ सकता। धार्मिक या आध्यात्मिक होने के लिए व्यावहारिक या सामाजिक होना पहली