Book Title: Jain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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128... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक
चयन
सम्यक्त्व - ग्रहण की प्रक्रिया साम्प्रदायिक मान्यताओं की आग्रहवृत्ति के रूप में रूढ़ हो गई है। मूलतः इसमें साम्प्रदायिक - अभिनिवेश का अभाव है। यह तो वस्तुतः साधना आदर्श, साधना के पथ प्रदर्शक और साधनामार्ग का है। । साधना के प्रारम्भ में इन त्रिनिश्चयों का ग्रहण इसलिए आवश्यक है कि आचरण के क्षेत्र में साधक कहीं भटक न जाए। जिस पथिक को अपने लक्ष्य और गन्तव्य मार्ग का परिज्ञान न हो, जिसके साथ कोई मार्गदर्शक न हो, वह क्या निर्विघ्न यात्रा कर पाएगा? इसी प्रकार जिस साधक को अपने आदर्श का बोध न हो, जो साधना के सम्यक् - पथ से अनभिज्ञ हो और जिसके साथ कोई पथ-प्रदर्शक न हो, वह कैसे साधना कर पाएगा? जैन विचारकों ने इसी तथ्य को सामने रखकर गृहस्थ साधक द्वारा सम्यक्-दिशा में आगे बढ़ने के लिए आदर्श के रूप में देव, साधना पथ के रूप में धर्म और मार्गदर्शक के रूप में गुरू का चयन आवश्यक माना है।
इस तरह सम्यक्त्व - व्रत की अवधारणा प्रकारान्तर या अर्थान्तर के साथ तुलनीय - परम्पराओं में अवश्य रही हुई है।
उक्त विवरण के आधार पर यह भी सुसिद्ध है कि सम्यक्त्व अर्थात सम्यक आचरण यही एक सुदृढ़ एवं सुसंस्कृत समाज का मूल आधार है। इसी की नींव पर श्रमणाचार एवं श्रावकाचार की बहुमंजिला इमारत खड़ी होती है तथा मोक्ष प्राप्ति की यात्रा प्रारंभ होती है।
सन्दर्भ सूची
1. तत्त्वार्थसूत्र, 1/2
2. उत्तराध्ययनसूत्र, 28/15
3. समयसार, 271. 11
4. पुरूषार्थसिद्धयुपाय, गा.-20-21
5. विशेषावश्यकभाष्य, 1787-90
6. उत्तराध्ययनसूत्र, 28/15
7. सम्मदिट्ठि अमोहो सोही, सब्भाव दंसणं बोही ।
अविवज्जओ सुदिट्ठित्ति, एवमाई निरूत्ताइं ।।
आवश्यकनिर्युक्ति, 861
8. आचार्य हरिभद्र के ग्रन्थों में श्रावकाचार, अपर्णा चाणोदिया,
पू. -101