Book Title: Jain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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जैन गृहस्थ
के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक
5. सम्यक्त्व धर्मरूपी वस्तु को धारण करने का पात्र है। 6. सम्यक्त्व चारित्रधर्मरूपी रत्न की निधि है।
छह-स्थान- नौ तत्त्व और छः द्रव्यों में दृढ़ श्रद्धा होना सम्यक्त्व है। सम्यक्त्वधारी को निम्न छः स्थानों पर दृढ़ आस्था होनी चाहिए। ये सम्यक्त्व गुण को परिपुष्ट करते हैं
1. आत्मा है - चेतना लक्षण से जीव का अस्तित्व है।
2. आत्मा नित्य है - जीव उत्पत्ति और विनाश से रहित है।
3. आत्मा अपने कर्मों की कर्ता है।
4. आत्मा कृत कर्मों के फल की भोक्ता है।
5. आत्मा मुक्ति प्राप्त कर सकती है।
6. सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक्चारित्र - ये तीनों मिलकर मोक्ष का उपाय है।
निष्पत्ति- अर्हत्परम्परा में सम्यक्त्व के सड़सठ भेद व्यवहारसम्यग्दर्शन की अपेक्षा से माने गए हैं। सम्यक्त्वी जीव में 67 गुणों का होना इसलिए आवश्यक है कि वह इनके माध्यम से निश्चय सम्यग्दर्शन में प्रवेश कर सकता है। निश्चय सम्यग्दर्शन की प्राप्ति करवाने में ये गुण नींव के समान हैं अतएव व्रतेच्छुक साधकों के लिए 67 गुणों का महत्त्वपूर्ण स्थान है।
यदि सम्यक्त्वी जीव के व्यावहारिक गुणों का ऐतिहासिक दृष्टि से अनुसंधान किया जाए, तो हमें यह विवरण सर्वप्रथम प्रवचनसारोद्धार (12वीं शती) ग्रन्थ में दृष्टिगत होता है । अतः मानना होगा कि जैन साहित्य में उक्त गुणों को सुनियोजित रूप से व्याख्यायित करने का श्रेय आचार्य नेमिचन्द्र एवं टीकाकार को जाता है ।
यदि इस सम्बन्ध में दूसरे पक्ष को लेकर शोध किया जाए, तो वह विवेचन बिखरे हुए अंशों में आगमिक एवं आगमेतर अन्य ग्रन्थों में भी उपलब्ध हो जाता है। यदि सम्यक्त्व के 67 भेदों में से पाँच लिंग, छः आगार, आठ प्रभावक आदि का पृथक्-पृथक् पहलू से विचार किया जाए तो जहाँ तक सम्यक्त्व के शम, संवेग आदि पाँच लिंग का सवाल है, वहाँ यह विवेचन विक्रम की 7वीं शती से पूर्व के ग्रन्थों में युगपत् रूप से दृष्टिगत नहीं होता है। इन प्रत्येक नामों की पृथक्-पृथक् चर्चा आचारांग, सूत्रकृतांग,