Book Title: Jain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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सम्यक्त्वव्रतारोपण विधि का मौलिक अध्ययन ...69
यथार्थ ही रहता है, यद्यपि दोनों की उपलब्धि-विधि में अन्तर है। एक व्यक्ति तत्त्व का साक्षात्कार स्वत: करता है और दूसरा श्रद्धा के माध्यम से करता है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन के विभिन्न अर्थ एकाकारता को लिए हुए हैं। सम्यग्दर्शन का लक्षण
सम्यग्दर्शन के विभिन्न लक्षणों में प्रमुख लक्षण है- 'तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्।' यह ऐसा लक्षण है, जिसमें निश्चय और व्यवहार दोनों अर्थ घटित होते हैं। सात तत्त्व की विकल्प रूप श्रद्धा व्यवहार सम्यग्दर्शन है तथा सात तत्त्वों में छिपी हुई एक आत्मज्योति की प्रतीति निश्चय सम्यग्दर्शन है।19 - इस प्रमुख लक्षण का विशेष स्वरूप है-तत्त्वार्थ का श्रद्धान। अपनेअपने स्वरूप के अनुसार पदार्थों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है।20 तत्त्वरूप से श्रद्धान करने का अभिप्राय यह है कि भावरूप से निश्चय करना। इस लक्षण का गूढ़तम अर्थ समझने हेतु 'तत्त्वार्थ' शब्द की व्युत्पत्तिपरक व्याख्या आवश्यक है।
तत्त्व और अर्थ-इन दो शब्दों के संयोग से तत्त्वार्थ शब्द का उद्भव हुआ है। इसके व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ इस प्रकार हैं
• 'तत्त्वेन अर्थः तत्वार्थ:'-तत्त्व अर्थात् अपना स्वरूप और उसके सहित पदार्थ-वह तत्त्वार्थ अथवा जो पदार्थ जिस रूप से अवस्थित है, उसका इसी रूप से ग्रहण तत्त्वार्थ है।
• 'तत्त्वमेवार्थस्तत्त्वार्थ:-जीव-अजीव आदि की तत्त्व संज्ञा भी है और अर्थ संज्ञा भी, इसलिए जो तत्त्व है, वही अर्थ है-इस प्रकार तत्त्वार्थ है।
• 'अर्थमेव तत्त्वं तत्त्वार्थ:'-जो अर्थ पदार्थ है, वही है तत्त्व ऐसा तत्त्वार्थ है।
• 'अर्थेन तत्त्वं तत्त्वार्थ:'-पदार्थ द्वारा भाव (तत्त्व) का ज्ञान होना तत्त्वार्थ है।
• 'तत्त्वं च अर्थं च तत्त्वार्थ:'-तत्त्व और अर्थ दोनों पर श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है।21
उक्त व्याख्याओं का सार तत्त्व यह है कि यद्यपि तत्त्वार्थ अनंत हैं और