Book Title: Jain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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की इच्छा काही हैं इस प्रकार अन्यतयुक्त है,
सम्यक्त्वव्रतारोपण विधि का मौलिक अध्ययन ...79 __ 1. निःशंकित- शंका का अर्थ है-संदेह। जिनभाषित तत्त्व के प्रति अंशत: या सर्वत: संदेह न करना तथा उन्हें यथार्थ एवं सत्य मानना नि:शंकित है।
2. निःकांक्षित- बौद्ध, वैशेषिक आदि दर्शन भी युक्तियुक्त है, अहिंसा के व्याख्याता हैं, इसलिए ये भी सही हैं-इस प्रकार अन्यान्य दर्शनों के अभिमत को ग्रहण करने की इच्छा कांक्षा कहलाती है अथवा भौतिक सुखों की आकांक्षाएँ रखना कांक्षा है, इससे रहित होकर सदनुष्ठान करना नि:कांक्षित है।
3. निर्विचिकित्सा- विचिकित्सा के दो अर्थ हैं- 1. धर्म के फल में संदेह करना। जैसे-इस कष्टमय धर्मसाधना का फल होगा या नहीं? 2. जुगुप्सा या निन्दा करना जैसे-इन मुनियों के शरीर पर मैल क्यों है? प्रासक जलस्नान में क्या दोष है? इस तरह का चिन्तन करना विचिकित्सा है। इसके विपरीत धर्मफल में संदेह नहीं करना और मैल आदि से घणा भी नहीं करना निर्विचिकित्सा कहलाता है।41
4. अमूढ़दृष्टि- मूढ़ता का अर्थ है- अज्ञान। उचित-अनुचित के विवेक का अभाव होना मूढ़ता है और मूढ़तारहित दृष्टि अमूढ़दृष्टि कहलाती है। मूढ़ता तीन प्रकार की कही गई हैं-1. देवमूढ़ता 2. लोकमूढ़ता और 3. शास्त्रमूढ़ता।
• देवमूढ़ता- काम-क्रोधादि से युक्त अदेव को देव मानना और कर्मविजेता वीतराग परमात्मा को अपना आराध्य न मानना देवमूढ़ता है।
• लोकमूढ़ता- लोक प्रचलित कुप्रथाओं, कुरूढ़ियों का पालन धर्म समझकर करना जैसे- गंगा में स्नान करने पर पाप धुल जाते हैं, पत्थरों के ढेर का स्तूप बनाने पर मुक्ति होती है, इत्यादि मान्यताओं को स्वीकार कर तदनुरूप प्रवृत्ति करना लोक मूढ़ता है।42
• समय (शास्त्र) मूढ़ता- हिंसा, झूठ, चोरी, जुआ आदि की प्रवृत्तियाँ बढ़ाने वाले ग्रन्थों को धर्मशास्त्र समझना समय मूढ़ता है। इसी प्रकार गुरूमूढ़ता, धर्ममूढ़ता आदि भी समझना चाहिए। इन मूढ़ताओं से रहित होना अमूढ़दृष्टि है।
5. उपबृंहण- 'उप' उपसर्ग और 'बृहि' धातु से उपबृंहण शब्द की । उत्पत्ति हुई है। इसका अर्थ है- वृद्धि करना, पोषण करना।