Book Title: Jain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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72... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक
निश्चय सम्यक्त्व और व्यवहार सम्यक्त्व
1. निश्चय सम्यक्त्व - राग, द्वेष और मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का मन्द होना, पर पदार्थों का भेद ज्ञान होना, स्वस्वरूप में रमण करना और देव - गुरू- धर्म ही मेरी आत्मा है - ऐसी दृढ़ श्रद्धा होना निश्चय सम्यक्त्व है अथवा बिना किसी उपाधि के, बिना किसी उपचार के शुद्ध जीव का जो साक्षात् अनुभव होता है, वह निश्चय - सम्यक्त्व है।
2. व्यवहार सम्यक्त्व - अठारह पापों से रहित वीतराग परमात्मा को देव, पाँच महाव्रतों का पालन करने वाले मुनियों को गुरू और जिनप्रणीत उपदेश या सिद्धान्तों को धर्म मानना व्यवहार सम्यक्त्व है | 24 सरागसम्यक्त्व- वीतरागसम्यक्त्व
1. सराग सम्यक्त्व - प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य आदि की अभिव्यक्ति होना सराग- सम्यग्दर्शन है।
2. वीतराग सम्यक्त्व - आत्मा का शुद्ध स्वरूप अथवा दर्शन सप्तक का आत्यन्तिक क्षय होने पर प्रकट होने वाली आत्म विशुद्धि वीतरागसम्यग्दर्शन है | 25
इस प्रकार सरागी जीवों को जो सम्यग्दर्शन होता है, वह सराग सम्यग्दर्शन कहलाता है और जो सम्यग्दर्शन वीतरागी जीवों को होता है, वह वीतराग सम्यग्दर्शन कहलाता है।
यहाँ यह तथ्य ज्ञातव्य है कि सम्यग्दर्शन स्वयं सराग या वीतराग नहीं होता, सरागता और वीतरागता का सम्बन्ध जीव की सरागी या वीतरागी अवस्था से है अतः सरागी जीव के सम्यग्दर्शन को सराग सम्यग्दर्शन और वीतरागी जीव के सम्यग्दर्शन को वीतराग सम्यग्दर्शन कहा गया है।
यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि दोनों के आत्म स्वरूप श्रद्धान में कोई अन्तर नहीं है, जैसा विशिष्ट आत्म स्वरूप श्रद्धान सरागी सम्यग्दृष्टि जीव को होता है, वैसा ही वीतरागी जीवों में होता है, मात्र अभिव्यक्ति में अन्तर है। सरागी जीवों में सम्यग्दर्शन की अभिव्यक्ति प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य-भाव से होती है और वीतरागियों में आत्मविशुद्धि मात्र से। क्योंकि इसमें आप्त, आगम एवं पदार्थ आदि का विकल्प ही नहीं रहता ।