Book Title: Jain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
View full book text
________________
जैन गृहस्थ के प्रकार एवं उसकी धर्माराधना विधि ...29 1. जिनेन्द्रपूजा- वीतरागी अरिहंत परमात्मा के अर्घ्य गुणों के प्रति सर्वात्मना समर्पित हो जाना यथार्थ पूजा है। पूजा दो प्रकार की बताई गईं हैद्रव्यपूजा और भावपूजा। अष्टद्रव्यों आदि के द्वारा जिन-प्रतिमा की पूजा करना द्रव्यपूजा है और उनके गुणों का चिन्तन करना भावपूजा है। श्रावक को यथाशक्ति दोनों प्रकार की पूजा करनी चाहिए।
पूजा करने से शुभ राग की वृद्धि होती है। शुभ राग की अभिवृद्धि होने से स्व स्वरूप बोध की अभीप्सा तीव्रतर हो जाती है जिससे वह फलत: आत्मदशा को उपलब्ध कर लेता है। अत: गृहस्थव्रती को इस कर्म का अवश्य पालन करना चाहिए।
2. गुरूभक्ति- गुरू का अर्थ है-अज्ञान अंधकार को नष्ट करने वाला। जो पंचमहाव्रत के पालक हैं, कंचन-कामिनी के त्यागी हैं, आरम्भ-परिग्रह से रहित हैं, सदैव आत्म भावों में रमण करते हैं, उन्हें गुरू के रूप में स्वीकार करके आहार, वस्त्र, पात्र, औषध और भेषज आदि आवश्यक वस्तुएँ प्रदान करना गुरूभक्ति है।
गुरू की भक्ति करने से त्रियोग की विशुद्धि होती है, सुसंस्कारों का बीजारोपण होता है, गुणों का अनायास प्रकटीकरण होने लगता है आदि कई प्रकार के लाभ होते हैं। इसी कारण गृहस्थ के दैनिक-षट्कर्मों में गुरूभक्ति को आवश्यक माना गया है।
3. स्वाध्याय- स्वाध्याय का अर्थ है स्व-आत्मा का, अध्याय-चिन्तन, मनन करना अर्थात् आत्मधर्म में स्थित होना या आत्मस्वरूप का चिन्तन करना स्वाध्याय है।
स्वाध्याय करने से बुद्धिबल और आत्मबल का विकास होता है, परिणाम की विशुद्धि होती है। यह परिणाम विशुद्धि ही महाफलदायक है। इससे मन स्थिर होता है, हेय, ज्ञेय एवं उपादेय का भेद ज्ञान प्राप्त होता है और राग वैराग में बदल जाता है। अत: यह कर्म श्रावक की दैनिक-चर्या में अनिवार्य माना गया है। ___4. संयम- इन्द्रिय एवं मन की चंचलता से रहित होना संयम है। संयम दो प्रकार से होता है-1. इन्द्रियसंयम और 2. प्राणीसंयम। इन्द्रियों की चंचल गति को रोकना इन्द्रियसंयम है और षटकायिक जीवों की रक्षा का ध्यान रखना प्राणीसंयम है।