Book Title: Jain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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जैन गृहस्थ के प्रकार एवं उसकी धर्माराधना विधि ...57 बुद्ध ने यह भी कहा है कि गृहस्थ को किन-किन सद्गुणों से युक्त होना चाहिए? उन गुणों की चर्चा में निर्देश दिया है कि जो गृहस्थ बुद्धिमान्, सदाचारपरायण, स्नेही, निवृत्तवृत्ति, आत्मसंयमी, उद्योगी, आपत्ति में साहसी, निरन्तर कार्यशील एवं मेधा सम्पन्न हो, वही यश-कीर्ति को प्राप्त करता है।85 ___ बुद्ध ने गृहस्थ उपासक को निम्न दोषों से बचने का निर्देश दिया है1. गृहस्थ को जीवहिंसा, चोरी, झूठ और परस्त्रीगमन नहीं करना चाहिए। 2. जुआ, कुसंगति, आलस्य, लड़ना-झगड़ना आदि नहीं करना चाहिए। 3. मद्यपान का सेवन भी नहीं करना चाहिए यह अनेक दुर्गुणों का जन्मदाता है।86
इस प्रकार बौद्ध परम्परा में गृहस्थ के आवश्यक अनावश्यक, योग्य अयोग्य सभी प्रकार के गुणों की चर्चा की गई है। साथ ही गृहस्थ धर्म को यापित करने के लिए उक्त नियमादि अपरिहार्य माने गए हैं तथा बुद्ध ने गृहस्थ के लिए अष्टशील से युक्त होना भी अनिवार्य कहा गया है।87
निष्कर्ष यह है कि तीनों ही आचारदर्शन साधना के दोनों स्तर समान रूप से स्वीकारते हैं तथा गृहस्थ-धर्म और संन्यास-धर्म दोनों के द्वारा ही निर्वाण प्राप्ति को सम्भव मानते हैं, तथापि जैन और बौद्ध-परम्पराएँ संन्यास मार्ग पर विशेष बल देती हैं। वही हिन्दु परम्परा दोनों पक्षों को तुल्य रूप में स्वीकारती हुई कर्मयोग द्वारा गृहस्थ जीवन में रहकर ही साधना करने पर जोर देती है।
सन्दर्भ-सूची ___ 1. अभिधानराजेन्द्रकोश, खण्ड 2, देखिए-सावय शब्द
2. सम्मत्तदंसणाई पइदिअहं, जइजणा सुणेइ य । __ सामाचारी परमं जो खलु, तं सावगं वित्ति ।।
समणसुत्तं, गा.-301 3. श्रद्धालुतां श्राति, श्रृणोति शासनम् ।। दानं वपेदाशु वृणोति दर्शनम्।
कृन्तत्यपुण्यानि, करोति संयमम् ।
तं श्रावकं प्राहुरमी विचक्षणा ।। जैन आचार सिद्धान्त और स्वरूप, पृ.-231 4. नन्दीमलयगिरिवृत्ति, पृ.-44 5. आवश्यकचूर्णि, भा.-1, पृ.-18