Book Title: Jain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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जैन गृहस्थ के प्रकार एवं उसकी धर्माराधना विधि ...51 होता है, इससे अन्य रोग भी उत्पन्न होते हैं।
14. रात्रिभोजन- रात्रिभोजन करने से अनेक जीवों की हिंसा होती है, और इससे जीव इहलोक-परलोक में दुःख को प्राप्त करता हैं। ___ 15. बहुबीज- अधिक बीज वाली वस्तुएँ जैसे- खसखस, पंपोटा, आदि इनमें प्रतिबीज जीव होने से अत्यधिक जीव हिंसा होती है।
16. अनन्तकाय- आलू, प्याज, आदि अनन्त जीवों का पिंड रूप होने से अभक्ष्य हैं।
17. संधान- बिल्व, केरी, नींबू आदि के अचार इनमें निश्चित अवधि के बाद दो इन्द्रिय वाले जीव उत्पन्न हो जाते हैं।
18. द्विदल- धान्यविशेष पदार्थ, जिनके दो दल होते हों और जिन्हें पीलने पर तेल न निकलता हो, द्विदल कहलाते हैं। द्विदल से निर्मित वस्तुएँ जैसेबड़े, पूड़ी, गट्टे आदि को कच्चे दूध, दही या छाछ के साथ खाने पर त्रस जीवों की हिंसा होती है, क्योंकि द्विदल वस्तुओं के साथ कच्चे दूध आदि का सम्मिश्रण होने से तुरन्त जीवोत्पत्ति हो जाती है।
19. बैंगन- यह निद्राकारक एवं कामोद्दीपक होने से त्याज्य है।
20. अज्ञातफल- जिन पुष्प फलों को कोई जानता न हो-ऐसे अज्ञातफल खाने से व्रतभंग एवं मृत्यु की संभावना रहती है। ___21. तुच्छफल- जिन फलों, पुष्पों एवं पत्तों में खाना थोड़ा और फेंकना अधिक हो, वे तुच्छ-असार कहलाते हैं। जैसे-मधूक, बिल्व आदि के फल, अरणि, महुआ आदि के पुष्प तथा वर्षाकाल में पत्तेदार सब्जियाँ-ये हिंसा में कारण भूत बनते हैं।
22. चलितरस- जिनका स्वाद बदल गया हो ऐसी वस्तुएँ, जैसे-बासी भात आदि, दो दिन का दही, छाछ आदि-इनमें जीवोत्पत्ति होने से ये हिंसा के कारण हैं।
बत्तीस अनन्तकाय- वनस्पति की प्रजाति विशेष। जिनका शरीर अनन्त जीवों का पिण्ड हो अर्थात जहाँ एक शरीर के आश्रित अनन्त जीव रहते हो, वे अनन्तकाय कहलाते हैं। इसकी कुछ प्रजातियों को जमीकन्द भी कहा जाता है। कंद अर्थात समूह, वृक्ष का भूमिगत अवयव कंद कहलाता है। जो जमीन के अन्दर पिण्डरूप में उत्पन्न होती हैं-ऐसी वनस्पतियाँ जमीकन्द कहलाती हैं।