Book Title: Jain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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जैन गृहस्थ के प्रकार एवं उसकी धर्माराधना विधि ... 49
संवासानुमोदन - पाप से नहीं बच सकता था। इस उदाहरण से और भी स्पष्ट हो जाता है कि व्रती-गृहस्थ अनुमोदना जनित पाप का भागी होने से वह तीन करण और तीन योग से व्रतग्रहण नहीं कर सकता है और न अपनी जाति से सम्बन्धविच्छेद ही कर सकता है।
निर्विवादतः यह कहा जा सकता है कि गृहस्थ के लिए दो करण और तीन योगपूर्वक व्रतादि का ग्रहण करना अधिक समुचित है। इसके सिवाय वह अन्य विकल्प भी अपना सकता है, किन्तु तीन करण और तीन योग के त्यागपूर्वक किसी व्रत-नियम आदि की प्रतिज्ञा करना उसके लिए संभव नहीं है, आपवादिक स्थिति में कदाच संभव हो सकता है।
श्रावक द्वारा नवकोटिपूर्वक प्रत्याख्यान सम्बन्धी अपवाद
सामान्यतया जैन श्रावक नौ कोटि का प्रत्याख्यान नहीं कर सकता है, किन्तु यह नियम विशेष आपवादिक स्थितिजन्य है । विशेषावश्यकभाष्य के अनुसार वे विशेष स्थितियाँ निम्न हैं 75
1. जो गृहस्थ दीक्षित होना चाहता है, किन्तु सन्तान की इच्छा, अनुरोध आदि कारणों से वह तत्काल प्रव्रजित न होकर ग्यारहवीं उपासक प्रतिमा स्वीकार करता है, उस समय वह नौ कोटि त्याग कर सकता है
2. वह अप्राप्य वस्तु का नौ कोटि त्याग कर सकता है जैसे- स्वयंभूरमण समुद्र के मत्स्य को मारने का त्याग करना। मनुष्य क्षेत्र से बाहर के हाथी दाँत, व्याघ्रचर्म आदि का उपयोग नहीं करना ।
3. वह स्थूल प्राणातिपात, स्थूल मृषावाद आदि का नौ कोटि पूर्वक त्याग कर सकता है, जैसे-सिंह, हाथी आदि को मारने का त्याग करना, किन्तु वह सर्वथा सावद्ययोग का त्याग नहीं कर सकता है।
4. वह अप्रयोजनीय वस्तु का नौ कोटि त्याग कर सकता है, जैसे- कौए के मांस को खाने का त्याग करना ।
निष्कर्ष यह है कि उपर्युक्त स्थितियों में श्रावक द्वारा नौ कोटि का प्रत्याख्यान किया जा सकता है।
व्रतधारी के लिए करणीय
आचार्य जिनप्रभसूरि के मतानुसार सम्यक्त्वव्रत धारण करने वाले गृहस्थ को निम्न कृत्यों का अवश्य पालन करना चाहिए