Book Title: Jain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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54... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक
संरक्षण एवं उत्पन्न हुए विशुद्ध भावों का संपोषण करना है। इस क्रियाविधि के माध्यम से व्रतधारी को अवधारित नियमों के प्रति सचेत - सचेष्ट रहने का आह्वान किया जाता है।
यदि उपर्युक्त विषयों के संदर्भ में सूक्ष्मदृष्टि से निरीक्षण किया जाए, तो विक्रम की 7वीं शती के पूर्वकाल तक यह वर्णन लगभग प्राप्त नहीं होता है। इसके पश्चात् आचार्य हरिभद्रसूरिजी के ग्रन्थों में तविषयक आंशिक विवरण बिखरे हुए स्वरूप में देखने को मिलते हैं । सम्यक्त्वी के लिए परिहार्य स्थानों का सूचन चैत्यवन्दनकुलक आदि कुछ ग्रन्थों में भी है। मूलतः यह विवेचन विधिमार्गप्रपा(14वीं शती) एवं आचारदिनकर ( 15वीं शती) में परिलक्षित होता है। अभिग्रहदान की यह विधि लगभग सभी परम्पराओं में समान है।
उपसंहार
आत्मोपलब्धि एवं तनावमुक्ति के लक्ष्य से की जाने वाली प्रशस्त क्रिया ‘साधना' कहलाती है। जैन- विचारणा में वैयक्तिक दृष्टि से साधना के दो स्तर किए गए हैं-1. सागार और 2. अणगार । गृहस्थ सागार और श्रमण अणगार कहलाता है।
गृहस्थ उपासक तीन प्रकार के कहे गए हैं - जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट । जघन्य श्रावक- जो निम्न तीन गुणों से युक्त होता है - 1. वह मारने की बुद्धि से किसी जीव की हत्या नहीं करता। 2. मद्य - मांस का सेवन नहीं करता और 3. नमस्कार - महामन्त्र के प्रति पूर्ण श्रद्धा रखता है वह जघन्य श्रावक है। मध्यम श्रावक - निम्न तीन गुणों का धारक होता है - 1. वह देव, गुरू और धर्म के प्रति पूर्ण श्रद्धा रखता हुआ स्थूल हिंसा आदि से पूर्ण निवृत्त होता है। 2. मद्य, मांस आदि अभक्ष्य पदार्थों के परित्याग पूर्वक लज्जा, दया, सहिष्णुता, आदि सद्गुणों से युक्त होता है और 3. प्रतिदिन देवपूजा, गुरूसेवा, दान, स्वाध्याय, संयम, तप-इन षट्कर्मों एवं सामायिक आदि षडावश्यकों का पालन करता है।
उत्कृष्ट श्रावक - इन तीन विशेषताओं से युक्त होता है - 1. वह निशल्य भाव से आलोचना कर, प्रायश्चित्त द्वारा शुद्ध आराधक बनता है। 2. प्रतिमाधारी होता है और 3. जीवन की अन्तिमवेला में संलेखनाव्रत धारण करके, शेष काल को समाधिपूर्वक सम्पन्न करता हुआ देह - विसर्जन करता है । संबोधप्रकरण,