Book Title: Jain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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जैन गृहस्थ के प्रकार एवं उसकी धर्माराधना विधि ...27 9. उद्यापन- बीसस्थानक, ज्ञानपंचमी, नवपद ओली आदि कोई भी तप पूर्ण होने पर शक्ति के अनुसार द्रव्य का व्यय कर उत्सव मनाना, धार्मिक उपकरण आदि चढ़ाना उजमणा (उद्यापन) कहलाता है। यह उद्यापन कार्य तपस्या के कलश के रूप में किया जाता है। इसे तपश्चर्या की अनुमोदना का एक अंग कह सकते हैं। शक्तिसम्पन्न श्रावकों को प्रतिवर्ष एक-एक उद्यापन अवश्य करना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति अकेला ही उद्यापन करने में समर्थ न हो, तो जब सामुदायिक-उद्यापन होता हो, तब यथाशक्ति योगदान देकर लाभ लिया जा सकता है, किन्तु उद्यापन का भागीदार अवश्य बनना चाहिए। उद्यापन करने से तप फल में वृद्धि होती है। कहा गया है-'तप फल वाधे रे उजमणा थकी, जिम जल पंकजनाल' जिस प्रकार पानी से कमलनाल की वृद्धि होती है, उसी प्रकार उद्यापन से तप के फल की वृद्धि होती है। वस्तुत: चंचला लक्ष्मी को स्थिर एवं सुदृढ़ बनाने का यह महत्त्वपूर्ण कार्य है। मंत्री पेथड़शाह ने नमस्कारमंत्र के तप का उद्यापन किया था। उसमें सोना, चाँदी, मणि, मोती, हीरा, पन्ना, रूपए, रेशमी ध्वजाएँ आदि प्रत्येक वस्तु 68-68 चढ़ाईं थी।56 आज भी उद्यापन परम्परा मौजूद है, किन्तु इन दिनों विशेष रूप से दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र के उपकरण ही चढ़ाए जाते हैं। ___10. तीर्थप्रभावना- प्रतिवर्ष एक बार शासन प्रभावना का कार्य करना। इस कर्त्तव्य का पालन आचार्य आदि गुरू भगवन्तों का ठाठ-बाट से प्रवेश करवाकर, समूह के साथ जिनालय के दर्शन कर आदि अनेक रूपों में किया जा सकता है। जैन ग्रन्थों में वर्णन आता है कि भगवान महावीर के आगमन पर कोणिक राजा ने भव्य स्वागत-समारोह सम्पन्न किया था। इसी तरह प्रदेशीराजा, दशार्णभद्रराजा, उदायनराजा भी समस्त राज्य-ऋद्धि के साथ परमात्मा महावीर को वंदन करने गए थे। महामंत्री पेथड़शाह ने धर्मघोषसरिजी के मांडवगढ़ प्रवेशोत्सव पर 72 हजार टंक द्रव्य का खर्च किया था। यहाँ शासन-प्रभावना का आशय यह है कि सांसारिक व्यक्ति धर्म महिमा को देखकर आत्मकल्याण के लिए प्रवृत्त बने। ____ 11. हृदयशुद्धि- जैन श्रावक का ग्यारहवाँ कर्त्तव्य है कि वह हृदय को शुद्ध रखे और अपने पापों की गुरू के समक्ष आलोचना करें तथा पाप की शुद्धि निमित्त गुरू जो प्रायश्चित्त दें उसे पूर्ण करें। आलोचना के बिना पापशुद्धि संभव नहीं है, इसलिए प्रतिवर्ष एक बार तो अवश्य आलोचना करनी चाहिए।