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बालक शरीर में जो आत्मा है वही युवा और वृद्ध शरीर में है । यदि शरीर के अनुसार संकोच - विकोच की क्रिया न हो तो बचपन एवं युवावस्था की आत्मा को अलग-अलग मानना पड़ेगा। बचपन की स्मृति युवावस्था में संभव नहीं होगी। जबकि बचपन की स्मृतियां युवावस्था में विद्यमान रहती हैं। इसलिये आत्मा का देह - परिमाण होना निस्संदेह है। ५३
जैन दर्शन में आत्मा को कथंचित् व्यापक भी माना है । केवली समुद्घात की प्रक्रिया में आत्मा चौदह रज्जु प्रमाण लोक में व्याप्त हो जाती है। मरण समुद्घात के समय भी आंशिक व्यापकता होती है । ४ लेकिन यह कभी-कभी होता है इसलिये व्यापक नहीं माना जाता ।
संख्या की दृष्टि से जीव अनंत हैं। प्रत्येक जीव के असंख्य प्रदेश हैं। व्याप्त होने की क्षमता के आधार पर लोक के समान विराट् है । जैन दर्शन में आत्मा के विभुत्व और अणुत्व - दोनों रूपों को मान्यता दी है। एकान्ततः आत्मा न व्यापक है और न अणु परिमाण ही । यह मध्यम परिमाणी है।
यहां प्रश्न हो सकता है-आत्मा को शरीर परिमाण मानने से क्या सावयव नहीं कहलायेगी ? जिसके अवयव है, वह अनित्य होता है। जैसे घड़ा सावयव है अतः विशरणशील है।
जैन दार्शनिकों का अभिमत है-अवयवी होने से अनित्य ही होता है—यह कोई नियम नहीं। घटाकाश, पटाकाश कहने से आकाश भी सावयव हो जाता है, किन्तु वह नित्य है । आकाशवत् आत्मा भी नित्य है ।
विश्व की कोई भी वस्तु एकान्त नित्य और अनित्य नहीं, नित्यानित्य है । द्रव्य नय की अपेक्षा नित्य है । पर्यायार्थिक नय से कथंचित् अनित्य है । आत्मा का चैतन्य शाश्वत है। कभी सुख में, कभी दुःख में, भिन्न-भिन्न अनुभूति - सब पर्याय हैं।
पर्याय की अपेक्षा से आत्मा अनित्य है। अतः अनेकान्त दृष्टि से सावयवता भी आत्मा के देह परिमाण होने में बाधक नहीं है ।
प्रदेश संख्या की दृष्टि से धर्म, अधर्म, लोकाकाश और जीव समान हैं, किंतु अवगाह की अपेक्षा समानता नहीं है। धर्म आदि तीनों लोक में व्याप्त हैं। वे गतिशून्य और निष्क्रिय हैं। ग्रहण- उत्सर्ग की क्रिया से रहित हैं । अतः इनका परिमाण सदा स्थिर है । संसारी जीवों में पुद्गल का ग्रहण होता है । उसकी क्रिया-प्रतिक्रिया होती है। इसलिये परिमाण एक जैसा नहीं रह सकता ।
आत्मा की दार्शनिक पृष्ठभूमि : अस्तित्व का मूल्यांकन
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