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वह वस्तु है। क्षणिक आत्मा में क्रम एवं अक्रम-किसी प्रकार की अर्थ क्रिया घटित नहीं होती।
इन सब दोषों का परिहार करने के लिये बौद्धों ने वासना को महत्त्व दिया। पूर्व ज्ञान से उत्तर ज्ञान में उत्पन्न शक्ति को वासना कहते है।५०
वासना का क्षण संतति के साथ-साथ ठीक सम्बन्ध नहीं बैठता। स्थायी आधार बिना वह संक्रमणशीलता कैसे सिद्ध मानी जाये? कौनसा पदार्थ आधारभूत बनेगा? ऐसी स्थिति में वासना की कल्पना अनात्मवाद को दार्शनिक त्रुटि से बचा नहीं सकती।
जैन दर्शन को उत्पत्ति और विनाश-दोनों में अन्वय रूप से रहने वाले आत्म द्रव्य की सत्ता स्वीकार्य है। न्याय-वैशेषिक और जैनः
भारतीय दर्शन परम्परा में चार प्रमुख विचारधाराएं है१. चार्वाक दर्शन में आत्मा और शरीर एक हैं। २. बौद्धमत के अनुसार आत्मा विज्ञानों का प्रवाह है। ३. अद्वैत वेदान्त मत में आत्मा एक है, नित्य है, स्व प्रकाश-चैतन्य स्वरूप है। ४. विशिष्टाद्वैतवाद के आधार पर आत्मा केवल चैतन्य नहीं, बल्कि एक ज्ञाता है।
न्याय-वैशेषिक का दृष्टिकोण वस्तुवादी है। इनके अनुसार आत्मा एक द्रव्य है। बुद्धि, सुख, दुःख, राग-द्वेष, प्रयत्न, इच्छा उसके विशिष्ट गुण हैं।५१ आत्मा शरीर से भिन्न स्वतंत्र द्रव्य है।५२ मुक्ति में शरीर का अभाव है अतः आगन्तुक चैतन्य गुण का मुक्तात्मा में अभाव होता है।५३ ।।
वैशेषिक सूत्र में आत्मा का अस्तित्व अनुमान प्रमाण से सिद्ध है। प्राणापान, निमेषोन्मेष, सुख-दुःख, इच्छा, प्रयत्न आदि को आत्मा का लिंग कहा है, इसी से आत्मा का अस्तित्व सिद्ध किया है।४
शरीर की तरह इन्द्रिय भी आत्मा नहीं है। कल्पना, स्मृति, विचार आदि मानसिक व्यापार इन्द्रियों के कार्य नहीं हैं। मन भी आत्मा नहीं है इसलिये कि मन अणु है, अप्रत्यक्ष है। मन आत्मा हो तो सुख-दुःखााद भी मन के ही गुण होंगे, अप्रत्यक्ष भी। जबकि सुख-दुःख की हमें प्रत्यक्ष अनुभूति होती है।
अद्वैतवादियों ने आत्मा को स्व प्रकाश-चैतन्य माना है। नैयायिक इससे सहमत नहीं। उनका मत है चैतन्य के लिये कोई आश्रय रूप द्रव्य होना चाहिये।
आत्मा का स्वरूप : जैन दर्शन की समीक्षा
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