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निर्बल है तो संतान भी वैसी ही उत्पन्न होगी। किन्तु यह धारणा यथार्थ प्रतीत नहीं होती। कहीं-कहीं इसके विपरीत भी दृष्टिगोचर होता है। तब किसी अन्य कारण की जिज्ञासा उठती है। वह कारण मनोविज्ञान की भाषा में वंशानुक्रम और परिवेश है। जैन दर्शन में कर्म है।
आनुवंशिकता का सम्बन्ध जीवन से है। कर्म का सम्बन्ध जीव से है। अनेक जन्मों के कर्म संस्कार जीव में संचित हैं। वे ही वैयक्तिक विलक्षणता के आधार हैं। मात्र वंशानुक्रम व्यक्तित्व का निर्धारक तत्त्व नहीं हो सकता।
विज्ञान के अनुसार हमारा शरीर कोशिकाओं (Cells) की संरचना है। कोशिका शरीर की सबसे छोटी इकाई है। कोशिका में जीवन-रस है। जीवन रस में जीवकेन्द्र (Nucleus) और न्युक्लीयस में क्रोमोसोम (Chromosomes) गुण-सूत्र हैं। क्रोमोसोम में जीन (Geens) है। संस्कारसूत्र जीन में है। ये जीन्स ही माता-पिता के संस्कारों के वाहक या उत्तराधिकारी हैं। एक जीन में करीब ६० लाख संस्कारसूत्र अंकित रहते हैं। उनके आधार पर मनुष्य की आकृति, प्रकृति, भावना और व्यवहार में अन्तर आता है।
__व्यक्ति के आनुवंशिक गुणों का निश्चय क्रोमोसोम के द्वारा होता है, जो उसके अनेक जीनों का समुच्चय है। इसमें ही शारीरिक,, मानसिक विकास की क्षमताएं (Potentialities) भरी हैं। व्यक्ति में कोई ऐसी विलक्षणता नहीं जिसका बीज जीन में न हो।
Law of Variation भिन्नता के नियम की चर्चा प्राचीन आयुर्वेद एवं जैनागमों में उद्धृत है। आयुर्वेद के अनुसार पैतृक गुण संतान में संक्रमित होते हैं।
जीवन विज्ञान के अभिमत से जीवन की किताब इस शब्द को जीन कहा है। ये जीन माता-पिता से विरासत में मिलते हैं। गर्भ में जीवन की बुनियाद रखने वाली कोशिका में कुल मिलाकर ४६ गुणसूत्र होते हैं। जिनमें २३ माता के और २३ पिता से प्राप्त होते हैं। डी.एन.ए. गुणसूत्रों का आधार है।
भ्रूण के लिङ्ग का निर्धारण भी पिता के शुक्र पर आधारित है। माता के रज में केवल X होता है और पिता के शुक्र में X और Y दोनों होते हैं। जब माता के X और पिता के Y का संयोग बनता है तब पुत्र उत्पन्न होता है। दोनों के XX संयुक्त होने से पुत्री का जन्म होता है।
कुछ लोगों ने शुक्राणु के जीवत्व में संदेह व्यक्त किया है। किन्तु जीव विज्ञान ने संदेह का निवारण इस प्रकार किया है
- जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन