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प्रस्थान आत्म-विकास का परिचायक है। लेश्या ज्यों-ज्यों शुद्ध बनती है, शुभ योगों में परिणत होती है। कषाय की मंदता होने पर कर्मागम का द्वार बंद हो जाता है। पुराने कर्मों का निर्जरण होता है। लेश्या की अशुद्धता जन्म-मरण की हेतु है। इससे पुनर्जन्म का चक्र रुकता नहीं।
पारमार्थिक दृष्टि से आत्मा सदा अविकारी है, उसमें विकास की कोई प्रक्रिया नहीं। वह बन्धन-मुक्ति, विकास और पतन से निरपेक्ष है। किन्तु जैन चिन्तन में व्यवहार का भी उतना ही महत्त्व है जितना परमार्थ का। समस्त आचार दर्शन ही व्यवहार नय का विषय है। आत्मा के विकास की प्रक्रियाएं भी व्यवहार नय की पटरी पर चलती हैं।
निश्चय नय से आत्मा अमर है। अविनाशी है। व्यवहार नय से कर्मयुक्त आत्मा जन्म-पुनर्जन्म करती है।
संदर्भ सूची १. सूत्र कृतांग, १।२।६। २. आचारांग, सू. २ पृ. १। ३. तीर्थंकर चारित्र, लेखक मुनि सुमेरमलजी (लाडनूं) ४. प्रमुख स्मृतियों का अध्ययन पृ. ५६।५७। ५. वैदिक विचारधारा का वैज्ञानिक आधार, पृ. ३३५/ ६. प्रमुख स्मृतियों का अध्ययन पृ. ५४। ७. श्वेताश्वतर उ. ५।१०। ८. योग भाष्य, २,१३। ९. वनपर्व १८३।७७। आयुषान्ते प्रहायेदं, क्षीण प्रायं कलेवरम्। संभवत्येव युगपद्योनौ
नास्त्यन्तरा भवः। १०. रघुवंश १४।१५। ११. दीघनिकाय २।३। १२. सर्वार्थसिद्धि २।२५ पृ. १८३। १३. भारतीय दर्शन की रूपरेखा पृ . २९१। १४. भारतीय दर्शन (डॉ. देवराज) पृ. ४१२। १५. पुनर्जन्म एवं क्रम विकास, पृ . ३७| १६. विश्व धर्म दर्शन पृ. २७५/ The Key of Knowledge पृ. ७१४।
पुनर्जन्म : अवधारणा और आधार
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