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मोह से पराजित होकर भी पुनः अप्रमत्त भाव और आत्मबल की अधिकता से मोह को क्षीण कर देता है। दोनों श्रेणियां परमात्म भाव के सर्वोच्च शिखर पर चढ़ने की सीढियां हैं।
इस गुणस्थान का नाम अपूर्वकरण भी है जो अपूर्वकरण की प्रक्रिया के आधार पर है।
अनिवृत्ति बादर गुणस्थान-(Advancced thought activity of a still greater purity.)—निवृत्ति का अर्थ है भेद। अनिवृत्ति अर्थात् अभेद। इसमें परिणामों की विशुद्धि समान होती है। इससे अनिवृत्ति बादर नाम है। ८वें गुणस्थान से इसमें परिणाम विशुद्धि अनंत गुणा अधिक है। इस पथ पर साधक सूक्ष्म लोभ को छोड़कर शेष सभी कषायों का क्षय या उपशमन कर देता है। आयु कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों का गुण संक्रमण, निर्जरण, स्थिति
और अनुभाग खंडन हो जाता है। आठवें गुणस्थान से ही यह क्रम आरंभ हो जाता है। काम वासनात्मक भाव यानी 'वेद' समूल नष्ट हो जाते हैं । उच्च स्तरीय आध्यात्मिक विकास की भूमिका है।
सूक्ष्म संपराय गुणस्थान-(Absence of all passions except the most subtle greed.)-इसमें भी सूक्ष्म लोभ के अतिरिक्त कषाय समाप्त हो जाती है। जैसे धुले हुए कुसुमी रंग के वस्त्र में लालिमा की सूक्ष्म आभा रह जाती है। इसलिये सूक्ष्म संपराय कहा है। यहां योग की प्रवृत्ति अवश्य रहती है। मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियों में से मात्र संज्वलन लोभ रहता है तब साधक इस श्रेणी में प्रवेश पाता है।
उपशांत मोह गुणस्थान-(Subsided delusion i.e. subsidence of the entere eight conduct deluding 'karmes')-सूक्ष्म लोभ का उपशमन होते ही आत्मा इस विकास-श्रेणी पर पहुंचता है। एक मुहूर्त तक यहां मोहनीय कर्म को उपशांत कर दिया जाता है किन्तु साधक के लिये यह अवस्था खतरनाक है। राख में दबी हुई अग्नि की तरह एक मुहूर्त पूर्ण होते ही मोहकर्म अपना प्रभाव दिखाता है। फलतः आत्मा जिस क्रम से उपर चढ़ता है उसी क्रम से नीचे आ जाता है। कभी-कभी प्रथम सीढी तक भी लुढक जाता है।
क्षीण मोह गुणस्थान-(Delusion annihilated.)-कर्म का मूल मोह है। यहां मोह का संपूर्ण उन्मूलन हो जाता है। सेनापति के अभाव में सेना स्वयं पलायन कर जाती है। वैसे ही मोह के नष्ट होते ही एकत्व विचार शुक्ल ध्यान के बल से एक मुहूर्त की अल्प कालावधि में ही ज्ञानावरण, दर्शनावरण और विकासवाद : एक आरोहण
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