________________
जैन दर्शन का चिंतन गहरा है। निर्वाण शब्द की व्याख्या करता है कि दीपक का बुझ जाना नहीं अपितु रूपान्तरण हो जाना है। वैसे ही जीव का निर्वाण भी अस्तित्व की शून्यता नहीं, वरन् अव्याबाध का प्राप्त हो जाना है।
निर्वाण आत्मा की परिपूर्ण विकास दशा का नाम है। रागात्मक संस्कारों का संपूर्ण विलय ही निर्वाण है। जन्म-मरण की परम्परा का समूल उच्छेद निर्वाण है। समस्त द्वन्द्वों से उपरत हो जाना निर्वाण है।३१
__ जैनागमों में मोक्ष तत्त्व पर तीन दृष्टियों से विचार किया गया हैभावात्मक, अभावात्मक और अनिर्वचनीय। भावात्मक पक्ष से मोक्षावस्था को निर्वाण कहा है।३२ मोक्ष, बाधक तत्त्वों का उन्मूलन एवं आत्म-गुणों की स्पष्ट
अभिव्यक्ति है। आठ कर्मों के क्षय हो जाने से अनन्त चतुष्ट्य ही नहीं, आत्मा के संपूर्ण गुणों का प्रकटीकरण हो जाता है। जैसे- सर्वज्ञत्व, सर्वदर्शित्व, प्रकाशत्व, अमूर्तत्व, अकर्तृत्व, अभोक्तृत्व, अकार्यकारणत्व, अगुरुलघुत्व, अटल अवगाहना आदि।
अभावात्मक दृष्टिकोण से आचारांग के आधार पर चित्रण इस प्रकार है-मुक्तात्माओं के कर्मजन्य उपाधियोंका अभाव होता है। मुक्तात्मा न दीर्घ है, न ह्रस्व है, न त्रिकोण है, न चतुष्कोण, न वृत्ताकार है, न परिमण्डल संस्थान वाला है। वर्ण, गंध, रस स्पर्श से मुक्त है। न स्त्री है, न पुरुष है, न नपुंसक है।३३
अनिवर्चनीय दृष्टिकोण से भी आचारांग में सुन्दर व्याख्या है
सव्वे सरा णियटति, तक्का जत्थ ण विज्जइ। मइ तत्थ ण गाहिया; ओए अप्पतिद्वाणस्स खेयण्णे।३४
समस्त स्वर वहां से लौट आते हैं। वाणी मूक हो जाती है। तर्क की वहां तक पहुंच नहीं है। बुद्धि (मति) उसे ग्रहण करने में समर्थ नहीं है। अनुपम है। अरूपी है। शब्दों के द्वारा अव्यारव्येय है-“उवमाण विज्जइ, अरूवी सत्ता अपयस्स पयं नत्थि।"
बौद्ध दर्शन में कोसलदेश का राजा पसेनदी और भिक्षुणी खेमा के बीच जो रोचक संवाद हुआ, उसमें भी स्वीकार किया गया कि निर्वाण एक वर्णनातीत अवस्था है। जिस प्रकार गंगा की बालू अथवा समुद्रजल के बिन्दुओं की गणना संभव नहीं, निर्वाण के सम्बन्ध में यही स्थिति है। उत्तर देना असंभव है।
.२१८
- जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन