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वैदिक दर्शन का कूटस्थ नित्यवाद और बौद्धों का क्षणिकवाद भी सभी महत्त्वपूर्ण मूलभूत तत्त्वों की व्याख्या करने में असमर्थ है। तर्क की कसौटी पर निर्विकार कूटस्थ और विकारी क्षणिक आत्मा की धारणा समीचीन नहीं है। जैन दर्शन का परिणामी आत्मवाद का सिद्धांत अधिक व्यावहारिक तथा तर्कसंगत है।
देकार्त ने एक तरफ आत्मा को अभौतिक माना, दूसरी तरफ पीनियल ग्लैण्ड में उसका निवास कहता है। जैन आलोचकों ने कहा- अभौतिक आत्मा पीनियल में कैसे रह सकता है जब आत्मा शरीर परिमाण है।
देकार्त की धारणा में आत्मा का व्यावर्तक गुण चिंतन, शक्ति और सोचना है। जैन मनीषियों के अनुसार सोचने की क्रिया एक देश में घटित नहीं होती इसलिये दो विचारों या मनोदशाओं की लम्बाई-चौड़ाई, वजन आदि की तुलना नहीं करते। हाथी का प्रत्यय या विचार आकार में चींटी के प्रत्यय या विचार से बड़ा नहीं होता।
फिजियोलोजी (Physiology) साइकोलोजी (Psychology) के अनुसार हमारे चिंतन आदि मनोविकारों का मस्तिष्क तथा स्नायुमंडल की क्रियाओं से गहरा सम्बन्ध होता है। जैन दर्शन भी चित् और अचित् (कर्म) के बीच ऐसा ही सम्बन्ध मानता है।
सांख्य, वेदान्त पूर्व मान्यता को लेकर चलते हैं कि जो-जो विकारी हैं वे अनित्य हैं। किन्तु यदि हम भौतिक जगत को देखें तो यह मान्यता उतनी प्रामाणिक नहीं जान पड़ती। भौतिक जगत के मूलभूत तत्त्व जैसे विद्युत एवं अणु गतिशील और परिवर्तनशील होते हैं फिर भी नित्य हैं।
न्याय-वैशेषिकों का भी कहना है कि परमाणुओं में रंगादि का परिवर्तन होता है पर परमाणु नित्य है। इस दृष्टि से जैन दर्शन का आत्मवाद स्पिनोजा के सिद्धांत से निकट है। स्पिनोजा की दृष्टि से विचार (Thought) और विस्तार (Extension) द्रव्य के धर्म या गुण हैं। नित्य द्रव्य के धर्म होने से वे नित्य हैं।
- प्रत्येक धर्म (Atribute) के प्रकार (Modes) भी होते हैं जो निरंतर परिणाम के कार्य हैं। विचार एवं विस्तार दोनों अपने को विभिन्न प्रकारों में अभिव्यक्त करते रहते हैं। स्पिनोजा का यह सिद्धांत जैन दर्शन की ज्ञान-पर्यायों से समानता रखता है।
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- जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन