Book Title: Jain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Author(s): Naginashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 267
________________ चेतन है तो प्रतिपक्षी अचेतन भी है। प्रत्येक पदार्थ अपने विरोधी युगल से जुड़ा है। समूची लोक व्यवस्था का आधार विरोधी युगल है। गति है तो स्थिति भी है। न कोरी गति होती है न कोरी स्थिति । न केवल धनात्मक आवेश होता है न ऋणात्मक आवेश । वैसे जड़-चेतन का सह अस्तित्व ही लोक है । जहां विरोधी युगल नहीं वहां अलोक (Absulute space) है । दो विरोधी तत्त्वों का सम्बन्ध होना ही बंध है। बंध तत्त्व व्यापक है। बंध किसका होता है ? प्रश्न के उत्तर में यही कहा जाता है कि जीव और कर्म का । आत्मा और पुद्गल का । चेतन और जड़ का । जीव और कर्म का सम्बन्ध एक सांयोगिक प्रक्रिया है । आत्मा में प्रति समय राग-द्वेषात्मक कोई न कोई भाव अवश्य रहता है। भावों से आकृष्ट कर्म वर्गणाएं आत्म-प्रदेशों पर चिपक जाती हैं। कर्म कहलाती हैं।' छहों दिशाओं से चतुःस्पर्शी कर्म पुद्गलों का आदान होता है। भगवती में कांक्षा मोहनीय कर्म के प्रसंग में महावीर ने कहा- जीव सर्वात्म प्रदेशों से, सब ओर से कर्म पुद्गलों को आकर्षित करता है।' कर्म जीव को ज्ञान, दर्शन, आनंद और शक्ति रूप सहज स्वभाव को आवृत, विकृत और अवरुद्ध करता रहता है। कर्म के संयोग से चेतना का ऊर्ध्वारोहण प्रतिहत हो जाता है। कर्म वर्गणाएं ग्रहण करते समय राग-द्वेष तीव्र होता है तो उन कर्मों में फलदान शक्ति भी तीव्र हो जाती है। मंद होने से मंद। यह तीव्रता या मंदता का तारतम्य हमारे कषायों आवेगों के आधार पर है। राग-द्वेष से आवेगोंउपआवेगों का चक्र चलता है। आवेगों के कारण शारीरिक क्रियाओं में रासायनिक परिवर्तन, शारीरिक लक्षणों में परिवर्तन होता है । आवेगों के शोधन और परिवर्तन आदि की प्रक्रिया पर मनोविज्ञान में विचार किया गया है। प्रवृत्तियों को रोका नहीं जा सकता किन्तु प्रवृत्तियों का दमन, (Sublimation) विलयन (Supperession) मार्गान्तरीकरण (Redirection) और उदात्तीकरण (Sublimation) हो सकता है। कर्मशास्त्र की भाषा में आवेग नियंत्रण की तीन पद्धतियां हैं-उपशमन, क्षयोपशमन, क्षयीकरण | उपशमन- -मन में जो आवेग उत्पन्न होते हैं उनको दबा देना उपशम है। इसमें आवेगों का विलय नहीं होता इसलिये पुनः उभर आते हैं । मनोविज्ञान की भाषा में दमन है। मनोविज्ञान दमन तक ही नहीं रुकता, परिशोधन आवश्यक मानता है। • २४८० • जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन

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